रविवार, 11 अक्तूबर 2009

ऐसे करें अपने बच्चों का विकास


महापुरुषों का कथन है कि बालक की नैतिक शिक्षा उसके जन्म से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है । अतः अपनी सन्तान को सच्चरित्र बनाने की अभिलाषा रखने वाले माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि वे बालक के जन्म से ही उन गुणों को स्वयं प्राप्त करने का प्रयत्न करें, जिन गुणों को वे अपनी सन्तान में होना आवश्यक समझते हैं । फिर भी जिन बालकों के माता-पिता ने इस ओर उचित ध्यान नहीं दिया, उनकी प्रवृत्तियों का भी अच्छी परिस्थिति की सहायता से बहुत कुछ सुधार किया जा सकता है । भले साथियों के सहवास से बुरी प्रवृत्तियों का दमन तथा अच्छी प्रवृत्तियों को उत्तेजित किया जा सकता है । 

वंश परम्परा तथा कुसंगति द्वारा प्राप्त कुप्रवृत्तियों का पारिवारिक सुधार कुछ अंशों में सदाचार शिक्षा द्वारा हो सकता है, परन्तु इस प्रकार की शिक्षा देने में निम्नलिखित छः बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है- 
(१) कुछ सीमा के अन्दर बालकों को थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता अवश्यमेव देनी चाहिए । उनकी प्रवृत्तियों का व्यर्थ दमन करने तथा हर समय उनको सख्त कैद में रखने से बहुत हानि की आशंका रहती है । इस प्रकार बालक डरपोक बन जाते हैं और उनमें आत्मविश्वास, स्वावलम्बन, दृढ़ निश्चय, उद्योगशीलता तथा मौलिकता आदि गुणों का विकास नहीं होने पाता । अतः बालकों को स्वतन्त्र रीति से कार्य करने का अधिक से अधिक अवसर देना चाहिए, जिससे कि उनके व्यक्तित्व और चरित्र का उचित रूप से विकास हो सके । 

(२) बालकों में आत्मसंयम का भाव उत्पन्न किया जाय तथा उनकी बुरी प्रवृत्तियों को रोका जाय । यह विशेषकर उन बालकों के लिए बहुत आवश्यक है, जिनकी पारिवारिक परम्परा तथा बाल्यकाल का सहवास अच्छा नहीं होता । इस प्रकार के बालकों को उसी समय दृढ़तापूर्वक रोकने की आवश्यकता होती है, जबकि वे सीमा का उल्लंघन करने को उद्यत होते हैं । ऐसी अवस्था में यदि अन्य साधनों से सफलता प्राप्त न हो, तो दण्ड का भी प्रयोग किया जा सकता है, जिससे कि बालक की कुप्रवृत्तियों का दमन होकर उसमें संयम का भाव उत्पन्न हो सके । 

(३) बालकों को उन गुणों, नियमों आदर्शों तथा कर्त्तव्यों से परिचित करा देना चाहिए, जिनके आधार पर उनके चरित्र का निर्माण करना है । जिससे उनको भली-भाँति विदित हो जाये कि कौन-सी बातें उनके लिए हितकर हैं, कौन-सी अहितकर, कौन-सी बातें उचित हैं और कौन-सी अनुचित तथा उनको किस आदर्श के अनुसार कार्य करना है? शिक्षाप्रद नाटकों, रोचक कथाओं, उत्तम-उत्तम कविताओं, आदर्श पुरुषों के जीवन-चरित्रों से बालक के आचरण संबंधी ज्ञान की वृद्धि तथा पुष्टि करें । बालकों को सुंदर-सुंदर कविताएँ, गीत, पद तथा श्लोक भी कण्ठाग्र करा देने चाहिए, क्योंकि इनके द्वारा उचित निर्णय पर पहुँचने और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उचित रीति से व्यवहार करने में बहुत सहायता मिलती है । 

(४) बालकों को निषेधात्मक कार्य की अपेक्षा विधेयात्मक कार्यों का स्मरण दिलाना अधिक श्रेयस्कर है । यदि बालक को किसी कार्य को करने का निषेध किया जाता है, तो उस कार्य को करने के लिए वह अधिक लालायित हो जाता है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल शाब्दिक रीति से अच्छी आदतों का बोध देकर ही शिक्षक तथा माता-पिता को सन्तुष्ट न होना चाहिए । उनके मन में उन आदतों के प्रति श्रद्धा तथा उनको अपने जीवन में चरितार्थ करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न की जानी चाहिए । इस प्रकार की दृढ़ इच्छा उत्पन्न हो जाने पर भिन्न-भिन्न गुणों, कर्त्तव्यों तथा सिद्धान्तों के सम्बन्ध में बालकों के मन में स्थायीभाव (सेंटीमेण्ट्स) उत्पन्न हो जाते हैं । इस भाव के उत्पन्न हो जाने से वे उन कार्यों को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हैं । 

(५) ऐसे भावों को बालकों के मन में अवश्य उत्पन्न करना चाहिए, जिनको उसके समाज में विशेष महत्त्व दिया जाता है । इसके साथ-साथ कुछ ऐसे गुणों के प्रति भी उसके मन में स्थायी भाव (सेंटीमेण्ट्स) उत्पन्न कर देना आवश्यक है, जिनका होना मनुष्यता का सूचक है और सभ्य समाज में प्रत्येक के लिए वांछनीय है, जैसे-आत्मसम्मान, सभ्यता, ईमानदारी, सत्य, स्वच्छता, स्वास्थ्य रक्षा, साहस, निर्भीकता, न्यायशीलता, दया, परोपकार, सहनशीलता, आस्तिकता, र्कत्तव्यपालन, संयम, नियम पालन आदि । इसमें सबसे आवश्यक आत्मसम्मान का स्थायीभाव है । बालकों के चरित्र गठन में इससे सबसे अधिक सहायता मिलती है । जिस बालक में यह भाव उत्पन्न हो जाता है, वह कोई अनुचित कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि इस भाँति के व्यवहार से उसके आत्मसम्मान में धब्बा लग जाने, उसके यश के कलंकित हो जाने और अन्य लोगों की दृष्टि में उसके गिर जाने की उसको सदा आशंका रहती है । इस भाव का विकास शनैः-शनैः होता है । इसको पूर्ण रूप से जाग्रत् करने के लिए बालक पर विश्वास करना चाहिए और उसके उत्तरदायित्व के भाव को जाग्रत् करना चाहिए। 

(६) कोई अनुचित कार्य हो जाने पर बालक को भला-बुरा नहीं कहना चाहिए, बल्कि ऐसा कहकर कि ''इस प्रकार का व्यवहार तुम्हारे योग्य नहीं है । यह कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता । तुमसे कदापि ऐसी आशा न थी । इत्यादि-इत्यादि... ।'' उसके आत्मसम्मान के भाव को जाग्रत् करना चाहिए, जिससे भविष्य में वह कोई भी कार्य अनुचित ढंग से न करे । ऐसे अवसर पर भला-बुरा कहने से बालक का उत्साह सदा के लिए भंग हो जाता है और दिन-प्रतिदिन उसकी अवनति होने लगती है । 

चरित्र-गठन के लिए बालकों में दृढ़ संकल्पशक्ति का होना भी आवश्यक है, जिससे कि विघ्न-बाधाओं तथा शारीरिक कष्टों का सामना करते हुए बच्चे अपने निर्णयों को कार्य रूप में परिणत कर सकें । इस दृढ़ता को उत्पन्न करना भी बालक के माता-पिता एवं गुरुजनों का आवश्यक कर्तव्य है ।


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