सोमवार, 12 अक्टूबर 2009

गुरुसत्ता की अन्तर्वेदना को समझें, अनिष्ट से बचें, अनुदान पायें


विसंगतियों को समझें-बचें
गुरु किसी शिष्य को शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्रेरित करे, शिष्य उसकी बात माने, तो गुरु उसके लिए उचित आहार की व्यवस्था भी बना देते हैं । शिष्य उनका लाभ उठायें, किन्तु साथ ही विषपान करने में रस लेने लगें, तो सारा किया-धरा बेकार चला जाता है । आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए भी ऐसा ही नियम लागू है । गुरु शिष्यों के लिए मूल्यवान् ज्ञान, मार्गदर्शन, प्रेम, शक्ति अनुदान आदि की व्यवस्था तो बना देता है, किन्तु यदि शिष्य प्रारंभ में ही मिलने वाले यश के नाते अहमन्यता अपना बैठे तो गुरु-शिष्य दोनों का पुरुषार्थ निरर्थक होने लगता है ।

विद्या विस्तार कार्यक्रमों में नया उत्साह उभरा है । युगशिल्पियों के निष्ठाभरे पुरुषार्थ एवं ऋषिसत्ता के अनुदानों से प्राप्त सफलता के साथ यश तो मिलेगा ही । उसे यदि तप और विवेक के द्वारा हजम न किया जा सके तो वह अहमन्यता-अहंकार का विष बनने लगता है । पू. गुरुदेव ने इससे बचने का दर्द भरा आग्रह प्रियजनों-परिजनों से किया है । जो इस विसंगति से बचेंगे, वे अगले चरण के उच्च स्तरीय कार्य करने और अनुदान पाने का सत्पात्र सिद्ध होंगे । इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव के र्निदेशों को पढ़ें, समझें, अपनाएँ।

यश की अपच से बचें
लोक सेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले के सम्बन्ध में जन साधारण की श्रद्धा उमड़ती है । परमार्थ की साहसिकता अपनाने वाले पर सम्मान बरसता है । उसकी प्रशंसा होती है । प्रशंसा भी एक सम्पदा है । सम्पदाओं की उपयोगिता तो है पर उनके पीछे एक ऐसा आवेश भी रहता है जो हजम न हो तो दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा । बुद्घि हजम न हो तो कुचक्र-षड़यंत्र रचेगी । बल हजम न हो तो उद्दण्डता के रूप में प्रकट होगा । हजम न होने पर अमृत भी विष बन जाता है ।

यश हजम न हो तो ऐसा अहंकार बनता है, जिसकी तुष्टि के लिए लोक सेवी को अपना चिंतन, चरित्र, व्यक्तित्व एवं भविष्य हेय स्तर का बनाकर उतना पतित बनना पड़ता है, जितना कि सेवा से सर्वथा दूर रहने वाले सामान्य श्रमिक भी नहीं गिरते । लोक सेवियों में से अधिकांश को अपने व्यक्तित्व और सेवा क्षेत्र में ऐसे विग्रह उत्पन्न करते देखा जाता है, जिसे दुर्भाग्यपूर्ण दुघर्टना ही कहा जा सकता है और सोचना पड़ता है कि यदि यश हजम कर सकने में असमर्थ लोग लोकसेवा के क्षेत्र में न आया करें तो वे अपनी और समाज की अधिक सेवा कर सकते हैं ।

मनुष्य को पतन-पराभव के गर्त में गिरा देने वाली तीन दुष्प्रवृत्तियाँ है-वासना, तृष्णा और अहंता । शिश्नोदर परायण नरपशु वासना, तृष्णा के लोभ में जकड़े रहकर किसी प्रकार कोल्हू के बैल की तरह नियति चक्र में परिभ्रमण करते हुए दिन गुजार लेते हैं । पर अहंता को चैन कहाँ ? वह सारी प्रशंसा, सारा बड़प्पन, सारे अधिकार अपने ही हाथ में रखना चाहती है । दूसरे की साझेदारी उसे सहन नहीं । इसी विडम्बना ने सर्वाधिक विग्रह उत्पन्न किए हैं । लगता तो यह है कि लालच के कारण अपराध होते हैं, पर वास्तविकता यह है कि अहंता ही जहाँ-तहाँ टकराती और प्रतिशोध से लेकर आक्रमण, अपहरण, उत्पीड़न के विविध अनाचार उत्पन्न करती है । अन्याय के अवरोध तो कहने भर की बात है, वह तो जहाँ-तहाँ, जब-जब ही दुष्टिगोचर होते हैं । वास्तविकता यह है कि सामन्तवादी अनाचारों का कारण भी यही है वहाँ अहंता ही उद्धत बनी और टकराई है ।

अनाचारों का विश्व-इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि अभाव या अन्याय के विरूद्ध नहीं अधिकांश विग्रह और युद्घ मूर्धन्य लोगों ने अहंता की परितुप्ति के लिए खड़े किये हैं । कंस, रावण हिरण्यकश्यपु, वृत्रासुर, सहस्त्रबाहु, जरासन्ध जैसे पौराणिक और सिकन्दर, नेपोलियन, चंगेज खाँ, आल्हा-ऊदल जैसे बबर्र लोगों ने जो रक्तपात किए, उनके पीछे उनकी दर्प-तुष्टि के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं था ।

लोकेषणा के दुष्परिणाम
यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिए की जा रही है कि युग शिल्पियों के द्वारा आरम्भिक उत्साह में जो कार्य अपनाया जा रहा है, उसमें लोक मंगल का परमार्थ प्रयोजन दृष्टव्य होने के कारण श्रेय, सम्मान एवं यश तो स्वभावतः मिलना ही है । यह पचे नहीं और उद्धत हो चले तो पागल हाथी की तरह अपना, साथियों का तथा उस संगठन का विनाश करेगा, जिसके नीचे बैठकर अपनी स्थिति बनाई है । हाथी पागल होता है तो अपनों पर ही टूटता है । इसी प्रकार लोकेषणा जब पागल होती है, तो सवर्प्रथम वह साथियों को मूर्ख, छोटा, अनुपयुक्त, दुष्ट सिद्ध करने लगती है । समान साथियों में मिल-जुल कर रहने में महत्त्वाकांक्षी का अपना वचर्स्व कहाँ उभरता है । उसे साथी पेड़-पादपों का इसलिए सफाया करना पड़ता है ताकि समूचे खेत में एक अकेला ही कल्पवृक्ष होने की शेखी बघार सके ।

दृष्टि पसार कर अपने चारों ओर लोकेषणा का नग्न नृत्य देखा जा सकता है । राजनैतिक पार्टियों में होते रहने वाले अन्तर्कलह सिद्धान्तों की दुहाई भले ही देते रहें, पर वस्तुतः वे व्यक्तियों की महत्त्वाकांक्षा के निमित्त ही होते हैं । कितनी ही उपयोगी संस्थाएँ पद लोलुपों ने परस्पर टकराकर अपने ही हाथों शिथिल या समाप्त कर दीं । कौरव-पाण्डवों से लेकर यादव कुल के लड़-खप कर समाप्त हो जाने के पीछे लालच छोटा और दर्प को बड़ा कारण पाया जायगा । धर्म-सम्प्रदायों, जो खण्ड-खण्ड होते चले गए है, उनके प्रचलनकर्ताओं में सुधारक कम और श्रेय लोलुप अधिक रहे हैं । चुनावों के समय या बाद में जो विग्रह दृष्टिगोचर होते हैं, प्रतिशोध के नाम पर अनर्थ होते हैं, उसमें औचित्य कम और दर्प का नंगा नाच अधिक देखा जा सकता है । सास-बहू की लड़ाई में यही विड़म्बना उछलती दुष्टिगोचर होती है । पतियों द्वारा पत्रियों को आतंकित करने में यही तथ्य प्रमुख होता है ।

सम्मान किसका ?
बात इस संदर्भ में चल रही है कि युग शिल्पियों को सप्त महाव्रतों को अपनाने हेतु इसलिए निर्देश किया गया है, ताकि उनका व्यक्तित्व उभरे और उस आधार पर आत्मबल बढ़ाते हुए अधिक उच्चस्तरीय सेवा-साधना कर सकने में वे समर्थ हो सकें । यदि उनका पालन न किया गया और लोकेषणा से उत्पन्न विष का नियमित रूप से निष्कासन न किया गया, तो वही दुर्गति होगी जो भोजन करने तथा मल विसर्जन में उपेक्षा बरतने पर प्राण-संकट के रूप में उत्पन्न होती है ।

लोकसेवी को जनता जो सम्मान देती है, वह वस्तुतः उस सेवाधर्म की पुण्य परम्परा का, सूत्र-संचालक तंत्र का सम्मान है । सत्प्रयोजनों के लिए लोकश्रद्धा बनी रहे, मात्र इसी एक प्रयोजन के लिए सम्मान के प्रकटीकरण की प्रथा चली है । गलती यह होती है कि सेवाभावी उसे अपनी व्यक्तिगत योग्यता का प्रतिफल मानते हैं । वे अहंकार में डूब जाते हैं और फिर उसे अपना अधिकार समझने लगते हैं । जहाँ उसमें कमी होती है वहाँ अप्रसन्न होते हैं । वे अधिक पाने के लिए आतुर रहते हैं । उसमें बँटवारा होने के कारण साथियों को हटाने या गिराने का प्रयत्न करते हैं । ऐसे ही हथकण्डे अधिक मात्रा में सम्मान पाने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं । इस आपा-धापी में कौन कितना सफल हुआ, यह तो ईश्वर ही जाने, पर यह आँख पसार कर सर्वत्र देखा जा सकता है कि यश लोलुपता,पद लोलुपता, अहमन्यता किसी से छिपाये नहीं छिपती । वह उभर कर ऊपर आती है और बदले में घृणा, तिरस्कार पनपने लगता है । अनौचित्य के प्रति तिरस्कार का यह भाव सर्वप्रथम साथियों से आरम्भ होता है । चर्चा आगे बढ़ती है और यशलोलुप के विरुद्ध असंतोष, तिरस्कार का विस्तार क्रमशः अधिक बड़े क्षेत्र में होता चला जाता है । यह है वह प्रतिक्रिया, जिसके कारण यशलोलुप तिरस्कार के भाजन बनते और अपनी सेवा-साधना के कारण जिस श्रेय-सम्मान के अधिकारी थे, उससे भी वंचित होते चले जाते हैं ।

ऐसी नासमझी न करें
बड़प्पन हर क्षेत्र में मँहगा पड़ता है । धन, विद्या, सौन्दर्य, पद आदि के क्षेत्रों में जो अपने को बड़ा सिद्ध करना चाहते हैं, उन्हें तरह-तरह के आडम्बर खड़े करके यह प्रकट करना होता है कि उनके पास यह विशेषताएँ हैं । लोग उसे देखें, समझें और सराहें । फैशन, ठाट-बाट जैसे खर्चीले सरंजाम इसी विज्ञापनबाजी के लिए किए जाते हैं, ताकि देखने वाले की आँखें उन पर जाएँ । यही अनाचरण यश-लोलुपों को भी अपनाना पड़ता है । वे किसी न किसी बहाने अपनी शकल बार-बार लोगों को दिखाना चाहते हैं, इसके लिए उन्हें अनेकों ऐसे उद्धत आडम्बर रचने पड़ते हैं, जिसमें उनकी प्रमुखता सिद्ध होती हो । स्टेज पर उठने-बैठने का औचित्य या आमंत्रण न होने पर भी वहाँ जा धमकते हैं, ऐसी जगह अकारण खड़े होते हैं, जहाँ लोग उनकी शकल देखें और वे किसी महत्त्वपूर्ण ड्यूटी पर जमे हुए प्रतीत हों । अपना नाम, फोटो छपाने के लिए आतुर रहना, किसी कार्य में दान दिया हो तो उसकी चर्चा स्वयं करने या दूसरों से कराने का रास्ता खोजना, दान राशि के पत्थर जड़वाना जैसी बचकानी हरकतें करने वाले प्रयत्न तो यशस्वी बनने का करते हैं, पर उनकी क्षुद्रता अनायास ही प्रकट होती जाती है । फलतः वे उलटे घृणा-तिरस्कार के पात्र बनते हैं ।

यश के साथ परोक्ष रूप से धन लूटने की भी सम्भावना जुड़ी रहती है । कितने ही इसका लाभ उठाते भी हैं, किन्तु स्पष्ट है कि ऐसे हथकण्डे अपनाने वाले आन्तरिक दृष्टि से पतित होते चले जाते हैं । फलतः वे सेवा के क्षेत्र में अन्यत्र की अपेक्षा और अधिक घाटे में रहते हैं । तिरस्कार, उपेक्षित, बहिष्कृत की स्थिति में पहुँचे हुए अनेक तथाकथित नेता ऐसे पाये जा सकते हैं, जो येन-केन प्रकारेण सम्मान जनक स्थान तक जा पहुँचने, जा बैठने में तो सफल हो जाते हैं, पर सम्पर्क क्षेत्र में सघन श्रद्धा से क्रमशः अधिकाधिक वंचित होते चले जाते हैं ।

अनजान नहीं, सुजान बनें
यह अहंता के परिपोषण का प्रतिफल है, जिसे लोकसेवी अनजाने ही अपनाने लगते हैं । स्मरण रखा जाय कि यह घुड़दौड़ अत्यन्त मँहगी, घाटे की और मूर्खतापूर्ण है । सड़क पर नंगा नाच नाचकर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है, पर इससे कुछ बनता नहीं । जिस प्रकार बड़प्पन पाने के लिए उद्धत प्रदर्शन करने वाले नट-विदूषक समझे जाते हैं, उसी प्रकार यशलिप्सा भी व्यंग-उपहास-तिरस्कार का कारण बनती है ।

सामने कोई कहे भले ही नहीं, पर इस तथ्य को थोड़ा-सा पर्यवेक्षण करने पर सरलतापूर्वक चरितार्थ होते देखा जा सकता है कि प्रमुखता सिद्ध करने के लिए चित्र-विचित्र स्वांग बनाने वाले, नाटक में मुखौटे-परिधान पहनकर कभी राजा, कभी ऋषि बनने वालों की तरह अपनी अवास्तविकता का ढिंढोरा स्वयं पीटते फिरते हैं । उसमें उन्हें श्रम, समय, धन और चातुर्य का निरर्थक अपव्यय करना पड़ता है । मूर्ख या चमचे इद-गिर्द करके उनके बीच रंगे सियार की तरह वनराज बनने का ढकोसला भर खड़ा किया जा सकता है, पर उससे मिलता क्या है? परोक्ष व्यंग-उपहास । अपने साथ जो गहरी अवज्ञा छिपाये रहता है, वह लोकसेवक विदूषक स्तर का बनकर रह जाता है ।

इस दुर्मतिजन्य दुर्गति का यदि पूर्वाभास रहे, तो लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले आरम्भ से ही सजग रहें और खिलवाड़ रचने की अपेक्षा सतर्क रहने का कार्य चुनें । विज्ञापनबाजी से बचकर नम्रताजन्य स्नेह-सौजन्य अपनाने वाले वस्तुतः अधिक श्रेयाधिकारी बनते हैं । यश-लिप्सा भी छाया की भाँति है । उसके पीछे दौड़ने वाले असफल रहते और खीझ-पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ पाते नहीं । इनकी अपेक्षा वे कहीं नफे में रहते हैं, जो श्रेय दूसरों को बाँटते हैं, स्वयं पीछे रहते हैं ।

विनम्र स्वयं सेवक की तरह जिन्हें अपनी श्रम साधना, परमार्थ परायणता के आधार पर मिलने वाले आत्मसंतोष को ही पर्याप्त मानने की विवेक दृष्टि रहती है, वे अनचाहा यश पाते हैं । उन्हें वह गहरा स्नेह-सद्भाव प्राप्त होता है, जिसके साथ साथियों-परिचितों का विश्वास और सहयोग प्रचुर मात्रा में जुड़ा रहता है । दूरदर्शिता इसी में है कि लोकसेवी सच्चे मन से यश, पद-लोलुपता, अहंता छोड़ें, विन्रमता अपनायें । दूसरों को आगे रखें, स्वयं पीछे रहें । अपना बखान स्थगित करें । अपना चेहरा चमकाएँ नहीं, वरन् उस तरह रहें जैसे कि सादा जीवन-उच्च विचार के सिद्धांन्त में आस्था रखने वाले दृष्टिकोण, चरित्र, व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता भरते और अपनी विशेषता के कारण महानता के उच्च पद पर जा पहुँचते हैं ।

गुरुसत्ता के उक्त निदेर्शों के बारे में नैष्ठिक परिजन स्वयं जागरूक रहें तथा अपने प्रभाव क्षेत्र के परिजनों को भी जागरूक रखें । थोड़ी सावधानी बरतने से बड़ी दुघर्टनाएँ टलेंगी और विकास की बड़ी संभावनाएँ फलित होंगी । गुरुसत्ता की प्रसन्नता तथा अपनी प्रगति के लिए इस सुयोग को अवश्य साधें ।

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