रविवार, 11 अक्टूबर 2009

भावनाशील बनें और व्यवहार कुशल भी

भावना जीवन-वृक्ष की जड़ है और उसके द्वारा खींचा जाने वाला पोषक पदार्थ व्यवहार । दोनों के समन्वय से ही परिवार को उपयुक्त परिपोषण मिलता है । भावना में आत्मीयता की सघनता होती है । उससे दूसरों को लाभ पहुँचाते समय उल्लास और उनका दुःख बँटाते समय सन्तोष की अनुभूति होती है । लेकिन उस आचार-संहिता को भी महत्व और प्रश्रय देना होगा, जो भावनाओं के अनाचार को रोकती है । रेलगाड़ी की सार्मथ्य कितनी ही बड़ी क्यों न हो, पटरी की मर्यादा में उसे अनुशासित न रखा जाय, तो वह कहीं से कहीं बहकेगी और अन्ततः अपना तथा दूसरों का विनाश करेगी । 

भावुक अक्सर ठगे जाते हैं, इसका कारण यह नहीं कि भावना की श्रेष्ठता में कोई सन्देह है, वरन् यह है कि व्यवहार और मर्यादाओं का नियंत्रण न रहने से उस दिव्य संवेदना का दुरुपयोग होता है । धूर्तों को इस कला में प्रवीणता प्राप्त होती है कि वे भावुकता भड़काकर किस प्रकार उस संवेदनशील मनोभूमि का लाभ उठायें । विपत्ति की सम्भावना बताकर ज्योतिषी और चिकित्सक किस प्रकार उनके स्वजन, परिजनों का अनुचित दोहन करते हैं, इसके प्रमाण-उदाहरण हर जगह उपलब्ध हो सकते हैं । शिशु-वात्सल्य की अतृप्त भावना को पूर्ण करने के लिए पराये बच्चे दत्तक लिये जाते हैं । इस दुर्बलता को वे बच्चे थोड़ी समझ आते ही भाँप लेते हैं और अपने परिपालकों का बुरी तरह शोषण ही नहीं करते, त्रास भी देते हैं । 

युवक-युवतियों के प्रेम-प्रसंगों में भावुकता की उड़ानें ही आकाश में पतंगों की तरह उड़ती दीखती हैं । संध्याकाल की रंगीनी आकाश के पश्चिमी भाग में कितनी मनोहर लगती है, पर उसका न तो कोई अस्तित्व होता है और न आधार । ऐसा ही उन्माद इन तथाकथित प्रेम-प्रसंगों के मूल में रहता है । न औचित्य समझ में आता है, और न यथार्थ । नशे पर नियंत्रण कौन करे? सपनों की सीमा कैसे बाँधे? प्रेमोन्माद भी लगभग ऐसा ही होता है । 

मैत्री के नाम पर कितना शोषण होता है, इसका अपना एक अलग ही क्षेत्र है । पुराने जमाने में शत्रु आमना-सामना करते लड़ाई लड़ते और हानि पहुँचाते थे । आज के जमाने का आधुनिकतम आविष्कार यह है कि मित्रता गाँठी जाय, वफादारी का प्रमाण दिया जाय और रंगीन सपने दिखाकर अथवा अपनी कठिनाई जताकर मित्र का शोषण आरंभ कर दिया जाय । दाव लगते ही उसे चित्त-पट्ट करके रफूचक्कर बना जाय । 

पति-पत्नी की द्विधासत्ता को एकत्व में परिणत कर देने का प्रधान कारण आत्मीयता की सघन भावुकता ही है । यही पतिव्रत और पत्नीव्रत की उच्च सच्चरित्रता के रूप में परिलक्षित होती है । एक-दूसरे के प्रति परिपूर्ण वफादारी का आधार यही है । एक-दूसरे को बहुत कुछ, सब कुछ देने की उमंगें इस संदर्भ में उठती भी हैं और उठनी भी चाहिए, किन्तु यदि यह उभार औचित्य की मर्यादा लाँघने लगे, तो समझना चाहिए कि अर्थ का अनर्थ होने जा रहा है । 

सम्पन्न लोग पत्नी को कुछ भी शारीरिक श्रम न करने देने के लिए नौकरों की व्यवस्था करते हैं । उनके लिए शृंगार और विनोद के अनेकानेक साधन जुटाते हैं । इसके प्रबंध के पीछे उनका उद्देश्य पत्नी पर भारी स्नेह होने का परिचय देना भर होता है । इस एकांगी चिन्तन में अंततः पत्नी की स्वस्थता, समर्थता, प्रखरता और प्रतिभा को बुरी तरह क्षति पहुँचती है और वह अंततः किसी कृषक, मजदूरों की श्रमजीवी पत्नी से भी अधिक घाटे में रहती है । गुड़िया बने रहने में उसके क्या खोया और क्या पाया? 

छोटों का अधिक काम करना, बड़ों को अधिक आराम देना सहज शिष्टाचार है । लेकिन बड़ों को आराम देने का अर्थ उन्हें आलसी और दुर्व्यसनी बना देना है, तो उसके कहीं अच्छा यह है कि उन्हें व्यवस्था, शिक्षा एवं लोकसेवा जैसे किसी उपयोगी काम में जुटाये रखने का ताना-बाना बुना जाय । देखने में यह बड़ों के प्रति अनुदारता बरतने जैसा प्रतीत होता है, किन्तु दूरदर्शिता यही कहेगी कि सद्भावना और सुव्यवस्था का समावेश हर दृष्टि से उचित है । 

जो कमाया जाय, उसका उत्तराधिकार संतान को ही मिले, यह प्रचलन हर दृष्टि से निंदनीय है । इसमें संतान को मुफ्तखोरी की लानत उठानी पड़ती है और संचयकर्त्ता मोहग्रस्त कहलाते हैं । औचित्य इतना ही है कि अभिभावक अपनी संतान को समर्थ, सुसंस्कृत बनाने के साथ अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझें और संतान भी अपने पूर्वजों से इससे अधिक की आशा न करें । असमर्थ आश्रितों को ही पूर्वजों की कमाई पर गुजारा करने का अधिकार रहना चाहिए, पर जो अपने बाहुबल से कमाने में समर्थ हैं, उन्हें स्वावलम्बन पूर्वक निर्वाह करना चाहिए । बिना परिश्रम की कमाई, चाहे वह चोरी में, लॉटरी में या उत्तराधिकार में या किसी दूसरे रास्ते से मिली हो, तथ्यतः अनैतिक है । जो कमाएँ सो खायें, यही सिद्धांत सही है । 

मोहग्रस्त अभिभावक, भावुकतावश अपनी संचित कमाई का उत्तराधिकार अपने वंशजों के लिए छोड़ते हैं तो प्रचलन के अनुसार इसे स्वाभाविक ही कहा जायेगा, किन्तु जहाँ तक विवेक एवं औचित्य का प्रश्न है, इस हस्तांतरण का कोई औचित्य नहीं है । कृषि, उद्योग आदि के तंत्र पीढ़ी-दर पीढ़ी चलते रहें और उनके सहारे परिवार को काम मिलता रहे, यह व्यवस्था अलग है, इसका समर्थन भी हो सकता है । किन्तु जहाँ ऐसा कुछ नहीं, बाप की कमाई बेटों को बँटनी भर है, वहाँ निश्चित रूप से भावुकता का अनुचित उपयोग ही है । इसमें देने वाले और लेने वाले-दोनों पर ही औचित्य की भावुकता के दुरुपयोग का कलंक लगता है । ऐसा धन विशुद्ध रूप से सार्वजनिक उपयोग के लिए प्रयुक्त होना चाहिए । भले ही उसे मृत्यु टैक्स के रूप में सरकार वसूल करे अथवा प्राचीनकाल की श्राद्ध व्यवस्था के अनुसार उसे स्वेच्छापूर्वक धर्म-प्रयोजन के लिए वितरित कर दिया जाय । 

इन दिनों भी परिवारों में भावना का अस्तित्व किसी न किसी रूप में विद्यमान है । भाव संवेदनाएँ घटती तो जा रही हैं, पर वे अभी समाप्त नहीं हुई हैं । अब जो करने योग्य है, वह यह है कि उस दैवी तत्त्व का उपयोग विवेकपूर्वक होने दिया जाय । पारिवारिकता अपने सही स्वरूप में पनपे, उसे मोहग्रस्तता की विकृत स्थिति में न रहना पड़े ।

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