स्वार्थ और परमार्थ में बहुत थोड़ा-सा अन्तर है । स्वार्थ उसे कहते हैं जो शरीर को तो सुविधा पहुँचाता हो पर आत्मा की उपेक्षा करता हो । चूँकि हम आत्मा ही हैं, शरीर तो हमारा वाहन या उपकरण मात्र है, इसलिए वाहन या उपकरण को लाभ पहुँचे, किन्तु स्वामी दुःख पावे तो ऐसा कार्यक्रम मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा । इसके विपरीत परमार्थ में आत्मा के कल्याण का ध्यान प्रधान रूप से रखा जाता है । आत्म का उत्कर्ष होने से शरीर को सब प्रकार सुखी एवं सन्तुष्ट रखने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ अपने आप उपस्थित होती रहती हैं । इसमें केवल अनावश्यक विलासिता पर ही अंकुश लगता है । फिर भी यदि कभी ऐसा अवसर आये कि शरीर को कष्ट देकर आत्मा को लाभ देना पड़े, तो उसमें संकोच न करना ही बुद्धिमानी है, यही परमार्थ है । परमार्थ का अर्थ है परम स्वार्थ ।
आत्म-कल्याण और युग-निर्माण का जो कार्यक्रम लेकर हम चले हैं, वह सच्चे अर्थों में परमार्थ की साधना है, क्योंकि उससे अपना तो लौकिक और पारलौकिक हित साधन होता ही है, साथ ही आसपास का वातावरण भी सुधारता है, दूसरों को भी लाभ मिलता है । जिस सुधार कार्य को हम आरम्भ करेंगे वह सबसे पहले हमारे निकटवर्ती लोगों को प्रभावित करेगा, क्योंकि यह प्रचार और प्रसार कहीं दूर देश में नहीं, वरन् अपने घर-कुटुम्ब और पड़ौस से ही आरम्भ करना है । उनके विचार उत्कृष्ट बनाने से, उनमें श्रेष्ठता और देवत्व की मात्रा बढ़ाने से निश्चय ही हम पर उसका अत्यधिक प्रभाव पड़ेगा । वे असहयोगी एवं आक्रमणकारी न रहकर हमारे लिए प्रेम, सहयोग एवं सज्जनता से बरतने वाले बनेंगे ।
परमार्थ से लाभ ही लाभ
युग-निर्माण कार्यक्रम सच्चे अर्थों में अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण स्वार्थ-साधन है, क्योंकि उसके द्वारा हम अपने आसपास सज्जनों का निर्माण करते हैं, सज्जनों का स्नेह एवं सहयोग हमारे सुख में बढ़ोत्तरी ही करेगा । सेवा करने का, आत्मसन्तोष, यश, प्रतिष्ठा एवं परलोक के लिए पुण्य-संचय का विशेष लाभ इसके अतिरिक्त है । इस ओर बढ़ाये हुए कदम हमें युगनिर्माता, लोकसेवी, देशभक्त, समाज-सुधारक, धर्मात्मा, परोपकारी एवं महापुरुषों की श्रेणी में ले जाकर बिठा देते हैं । इतिहासकारों की कलम के नीचे हमारा नाम जमता है और जनता हमें अभिनंदनीय मानती है, यह लाभ इसके अतिरिक्त है ।
वस्तुतः यह अपनी और अपने बच्चों की स्वार्थ-साधना का श्रेष्ठ तरीका है । इन प्रयत्नों में कोई और न सुधरे, केवल हमारा परिवार ही सम्भ्रान्त बन जाये, तो उसकी सज्जनता से हमारा आज का समय भी आनंद से कटेगा और बुढ़ापा भी उनके बीच रहते हुए शान्ति से बीतेगा । कुसंस्कारी परिजन नरक में रहने वाले यमदूतों से अधिक दुःख देते हैं । इसका अनुभव उन्हें भलीभाँति होगा, जिनके स्त्री, पति, पुत्र, पुत्री, भाई, भतीजे, दामाद, बहनोई कर्कश, उद्दण्ड एवं कुमार्गगामी मिले हैं । उनकी गतिविधियों से जिसका जी दिन-रात जलता रहता है, वह बेचारा घायल से भी बुरा होता है । घायल अपने कष्ट को कह सकता है, दूसरों को अपना जख्म दिखा तो सकता है, कराह तो सकता है, पर उस बेचारे के लिए तो इस पर भी प्रतिबंध है । जी की जलन में भीतर ही भीतर सुलगते रहने की व्यथा कितनी कष्टकारक होती है, इसे कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है ।
समय से पहले चेतें
इस व्यथा से छुटकारा दिलाने का कोई कारगर उपाय यदि मिल सके तो इस प्रकार का परिजन-पीड़ित, पड़ोसियों और स्वजन-सम्बन्धियों का सताया हुआ मनुष्य, उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग और खर्च करने को तैयार हो सकता है । हमें सोचना चाहिए कि भयंकर बीमारी में फँस जाने पर प्रचुर धन खचर् करने की अपेक्षा उस बीमारी को न होने देने या रोके रहने के लिए समय रहते थोड़ा कुछ खर्च कर लिया जाए तो क्या वह बुद्धिमानी न होगी? शत्रु का हमला होने पर उसे लड़कर परास्त करने का तरीका महँगा और समय रहते शत्रु को निरस्त कर देने का तरीका सस्ता है । हैजा या इन्फ्लुऐंजा फैलने के दिनों में क्या हम अपने घर में सब को सुरक्षा की सुई नहीं लगवा देते सुरक्षा की सुई के रूप में ही हमें अपने निकटवर्ती क्षेत्र में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का शिक्षण कार्य आरम्भ कर देना चाहिए ।
अपने बच्चों का भविष्य बनाने और उन्हें सुखी रखने के लिए यों हम बहुत कुछ सोचते और बहुत कुछ करते हैं । अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, ऊँची शिक्षा, विवाह-शादी में विपुल खर्च, चिकित्सा, मनोरंजन आदि की सुविधाएँ जुटाने में हर अभिभावक बहुत त्याग और बहुत खर्च करता है । इन बातों पर सोचता-विचारता भी बहुत रहता है । अपने प्यारे बच्चों और परिजनों के लिए ऐसा करना उचित भी है । पर इसी स्थान पर दाल में नमक डालना भूल जाने की तरह एक बहुत बड़ी भूल हम यह कर बैठते हैं कि उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए कुछ नहीं करते । शिक्षा तो देते-दिलाते रहते हैं, पर दीक्षा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता ।
सुसंस्कारी की गरिमा
हजार योग्यताएँ और लाख समृद्धियाँ एक ओर और सुसंस्कारों को एक ओर रखकर तोला जाए, तो सुसंस्कारों का पलड़ा भारी बैठेगा । सुसंस्कारी व्यक्ति गरीब रहते हुए भी आनन्द एवं उल्लास का जीवन व्यतीत कर सकता है, पर कुसंस्कारी व्यक्ति कुबेर की सम्पदा और इन्द्र-से वैभव का स्वामी होते हुए भी संतप्त रहेगा और अपने सम्बन्धियों को संतप्त करेगा । इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति का कत्तर्व्य है कि अपने उत्तराधिकारियों को जमीन, घर, नकदी, शिक्षा आदि से विभूषित करने की बात ही न सोचें, वरन् उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए भी प्रयत्न करें ।
यह कार्य अध्यापकों पर नहीं छोड़ा जा सकता, यह तो हमारे स्वयं करने का है । युग निर्माण योजना के अन्तर्गत व्यक्ति निर्माण के लिए हम जो कुछ करते हैं, उससे इसी आवश्यकता की पूर्ति होती है । अपने परिजनों को दीक्षा देने का, उन्हें सुसंस्कार, सद्विचार, सद्भाव, उदार दृष्टिकोण, सच्चरित्रता, मानवता एवं दूरदर्शिता अपनाने के लिए प्रेरणा देने का जितना कारगर उपाय इस योजना में सन्निहित है, उतना अन्य प्रकार से संभव नहीं हो सकता । यदि हम इस ओर उपेक्षा करते हैं तो मानव जीवन को धन्य बनाने वाले एक श्रेष्ठ पुण्य-परमार्थ से ही वंचित नहीं होते, वरन् अपने निकटवर्ती लोगों को कुमागर्गामी बनने से रोकने में उपेक्षा करने के अपराधी भी बनते हैं ।
संकीणर्ता नहीं, दूरदशिर्ता चाहिए
हम स्वार्थ में ही न लगे रहें, परमार्थ की बात भी सोचें । परमार्थ किसी पर कोई अहसान या उपकार करना नहीं, वरन् अपने ही दूरवर्ती एवं चिरस्थायी स्वार्थ को बुद्धिमता के साथ सम्पन्न करना है । जो परमार्थ साधता है, वही सच्चा स्वार्थी है, क्योंकि उसे आज ही नहीं, कल भी सुख प्राप्त होता है । उसकी आज की ही अभिलाषा पूर्ण नहीं होती, वरन् चिरकाल तक अपने अभीष्ट की सिद्धि का लाभ उठाता रहता है । हम संकुचित स्वार्थ की सीमा से बाहर सिर उठाकर यदि दूर तक सोच सकें तो व्यक्ति निर्माण की, युग निर्माण की प्रस्तुत योजना रोटी कमाने के आवश्यक कार्यों की तरह ही उपयोगी एवं अपनाने योग्य प्रतीत होगी ।
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