उत्कृष्ट श्रेणी का जीवनयापन करने के लिए स्वाध्याय को ईश्वर उपासना की ही तरह प्रमुखता दी जानी चाहिए, ताकि उस प्रकार की प्रेरणा देते रहने वाले प्रौढ़ विचार हमें निरन्तर मिलते रहें । साधना में निष्ठा बनाए रहना सद्ज्ञान की ही निरन्तर प्रेरणा से संभव होता है अन्यथा उस नीरस कार्य से मन ऊबने लगता है, आलस आता है और उत्साहपूर्वक आरम्भ की हुई साधना पहले अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित होती है और अंत में वह छूट ही जाती है ।
चिरसंचित संस्कार धीरे-धीरे ही दूर होते हैं । छोड़ देने की इच्छा रहते हुए भी अभ्यास में आई बातें बार-बार प्रबल हो उठती हैं और प्रयत्नों को असफल करने की रचना रचती हैं । यह कठिनाई प्रत्येक आत्मसुधार करने वाले के सामने आती है । सफल वही होता है जो असफलताओं से खिन्न होकर प्रयत्न नहीं छोड़ता ।
यदि विचार बदल जाएँगें तो कार्यों का बदलना सुनिश्चित है । कार्य बदलने पर भी विचारों का न बदलना सम्भव है, पर विचार बदल जाने पर उनसे विपरीत कार्य देर तक नहीं होते रह सकते । विचार बीज हैं, कार्य अंकुर; विचार पिता हैं, कार्य पुत्र । इसलिए जीवन परिवर्तन का कार्य विचार परिवर्तन से आरम्भ होता है । जीवन-निर्माण का, आत्म-निर्माण का अर्थ है-विचार-निर्माण ।
लोहे से लोहा काटा जाता है, काँटे से काँटा निकलता है, विष से विष मरता है, सशस्त्र सेना का मुकाबला करने के लिए वैसी ही सेना चाहिए । कुविचारों का शमन सद्विचारों से ही संभव है । इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जो त्रुटियाँ एवं बुराइयाँ दिखाई दें, उनके विरोधी विचारों को पर्याप्त मात्रा में जुटा कर रखा जाय और उन्हें बार-बार मस्तिष्क में स्थान मिलते रहने का प्रबंध किया जाए । जब आलस्य घेर रहा हो तब परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता को प्रोत्साहन देने वाले विचारों पर देर तक मनन-चिंतन करना चाहिए, आलस्य हट जाएगा ।
जब कामुकता जग रही हो तो ब्रह्मचर्य, मातृ-भावना एवं चारित्रिक पवित्रता की विचारधारा को मन में स्थान देना चाहिए, वासना शांत हो जाएगी । क्रोध का आवेश चढ़ रहा हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति उदारता की दृष्टि से विचार करना शुरू कर देना चाहिए, गुस्सा ठंडा हो जाएगा । शोक, निराशा और चिंता घेरने लगे तब साहस, आशा, पुरुषार्थ और पुनर्निर्माण की बात सोचनी चाहिए, मन संतुलित होने लगेगा । यदि निकृष्ट विचार मनुष्य को गिरा सकते हैं तो उत्कृष्ट विचार उसे ऊँचा भी उठा सकते हैं ।
अपनी दुर्बलताएँ छोड़ने के लिए यह आवश्यक है कि उनकी हानियों पर अधिक से अधिक विचार किया जाए । साथ ही वह बुराई छोड़ देने पर जो लाभ मिलेगा । उसका आशापूर्णक चित्र भी मन में बनाना चाहिए । नशा छोड़ना हो तो उसके द्वारा जो शारीरिक, आर्थिक और मानसिक हानियाँ होती हैं, उन पर विचार करना और उसे छोड़ने पर स्वास्थ्य-सुधार, पैसे की बचत तथा मनोबल बढ़ने का सुनहरा चित्र मनःक्षेत्र में स्थापित करना आवश्यक है । कुछ दिन लगातार यह उपक्रम चलने लगे तो नशे के प्रति घृणा हो जाएगी और वह अवश्य छूट जाएगा, किन्तु यदि इस प्रक्रिया को पूर्ण किए बिना ही किसी जोश-आवेश में नशा छोड़ देने की प्रक्रिया कर ली है तो यह आशंका बनी ही रहेगी कि वह उत्साह ठंडा होने पर पुरानी आदत फिर से सबल हो उठे और नशा करना फिर शुरू हो जाए । इसलिए इस सुनिश्चित तथ्य को भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि जीवन को सुधार की दिशा में मोड़ने के लिए उत्कृष्ट कोटि की विचारधारा को मनोभूमि में नियमित रूप से स्थान देते रहना नितान्त आवश्यक है । इस अनिवार्य आवश्यकता की उपेक्षा करके कभी कोई व्यक्ति न अब तक आत्म-निर्माण कर सका है और न आगे कर सकेगा ।
यदि हम अपने व्यक्तित्व को श्रेष्ठता के ढाँचे में ढालने के लिए सचमुच ही उत्सुक एवं उद्यत हों तो अपने दैनिक कार्यक्रम में उत्कृष्ट विचारधाराओं को मस्तिष्क में ठूँसने का एक नियमित विभाग हमें बना ही लेना चाहिए । मन लगे चाहे न लगे, फुरसत मिले चाहे न मिले, इसके लिए बलपूर्वक, हठपूर्वक समय निकलना ही चाहिए । नित्य कितने ही काम अनिच्छापूर्वक भी करने पड़ते हैं और समय न रहने पर भी आकस्मिक स्थिति के अनुरूप समय निकालना पड़ता है । विचार-निर्माण को भी ऐसी ही एक अनिवार्य आवश्यकता मानना चाहिए और उसके लिए हठपूर्वक कटिबद्ध हो जाना चाहिए । थोड़े ही समय में यही क्रम बहुत ही रुचिकर लगने लगेगा, संतोष और आनन्ददायक प्रतीत होगा ।
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