रविवार, 11 अक्टूबर 2009

सूर्य-साधना पर निर्भर है हम सबका भविष्य

परम पूज्य गुरुदेव -संदर्भ -गायत्री का सूर्योपस्थान, पृष्ठ-३० से ३७ 

दीर्घकालीन कालचक्र के अनुसार इन दिनों दो महाक्रांतियाँ होने को हैं । ... इनमें वृष्टि, अनावृष्टि, सूखा, अकाल ओलावृष्टि आदि ही नहीं, युद्ध और महामारियों के प्रकोप भी होंगे । उन प्रकोपों में उन्हीं की रक्षा होगी, जो सूर्य से अपना संबंध जोड़े रहेंगे । 

इस तरह की जो घोषणाएँ हम काफी समय पहले से ही कर रहे हैं, वह गणित-ज्योतिष और सूर्य विद्या के आधार पर ही कर रहे हैं । वैज्ञानिक निष्कर्ष भी इसकी पुष्टि करते हैं । भारत वर्ष को मुस्लिम और अंग्रेजी सभ्यता के बंधन में रहते हुए कोई पंद्रह सौ वर्ष बीत रहे हैं । सूर्य विद्या के आधार पर इन १५०० वर्षों का अंत इसी शताब्दी में हो जायेगा । (काल गणना देखें मूल पुस्तक के पृष्ठ ३३ पर) इस बीच सूर्य की प्रचण्ड शक्तियों का पृथ्वी पर आविभार्व होगा और उससे वे तमाम शक्तियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगी, जो मानसिक दृष्टि से अध्यात्मवादी न होंगी । जो सूर्य शक्तियों से संबंध बनाये रखेंगे, उनकी रक्षा और समुन्नति उसी प्रकार होगी, जिस तरह भयंकर ज्वार-भाटा आने पर भी समुद्र में पड़े फूलों का अनिष्ट नहीं होता, जबकि बड़े-बड़े जहाज यदि साधे न जायें तो अनन्त जल राशि में डूबकर नष्ट हो जाते हैं । गायत्री उपासक इन परिवर्तनों को कौतूहल पूर्वक देखेंगे और उन कठिनाइयों में भी स्थिर बुद्धि बने रहने का साहस उसी प्रकार प्राप्त करेंगे, जिस प्रकार माँ का प्यारा बच्चा माता के क्रुद्ध होने पर भी उससे भयभीत नहीं होता, वरन् अपनी प्रार्थना से उन्हें शांत कर लेता है । 

यह नहीं समझना चाहिए कि इन परिवर्तनों में विश्व संस्कृति का अन्त हो जायेगा ।.... जब तक सूर्य है, तब तक सृष्टि रहेगी, पर अब वह एक बार स्नान कर अपनी संपूर्ण गंदगी साफ कर देने को इच्छुक है । वर्तमान प्राकृतिक हलचलें उसी का प्रमाण हैं । 

वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि सूर्य जब उत्तेजित होता है, तब उससे ज्वालाएँ फूटती हैं और सूक्ष्म कणों की वर्षा होती है । यह कण बाद में कहाँ विलीन हो जाते हैं, इसका पता लगाने में वैज्ञानिक असमर्थ रहे, लेकिन आत्मविद्या के आचार्य कहते हैं कि सूर्य-शक्ति के उत्तेजित कण ही सृष्टि के प्रत्येक अणु में हलचल पैदा करते हैं । उससे प्रकृति ही नहीं, प्राणियों की सूक्ष्म प्रवृत्ति, अर्थात् विचार, भावनाएँ, संकल्प और विश्वास भी प्रभावित होते हैं । इन परिवर्तनों को आँका जाना यद्यपि संभव नहीं होता, पर सामूहिक रूप से विश्व की राजनीति, उद्योग, व्यापार, श्रम, रोजगार, युद्ध एवं सामाजिक गतिविधियों पर उनके प्रभाव को देखकर वस्तु स्थिति को समझा अवश्य जा सकता है । 

जो इन बातों की अनुभूति करेंगे, वे तेजी से गायत्री महाविद्या के अन्तराल में प्रविष्ट होंगे । साधना, ज्ञानार्जन और संयम में उनकी वृत्ति बढ़ेगी, ऐसे लोग ही आगे चलकर विश्व का मार्गदर्शन करेंगे । 

सूर्य को ऋषियों ने त्रयी विद्या कहा है, अर्थात् उसमें स्थूल तत्त्व (जिनसे शरीर बनते हैं ।), प्राण (जिनसे चेतना आती है ।), और मन (जो चेष्टाएँ प्रदान करता है ।) तीनों तत्त्व विद्यमान हैं । हम दृश्य रूप से सूर्य के परिवर्तनों से प्रभावित होकर दुःखी होते हैं, किन्तु गायत्री मंत्र के माध्यम से जब सूर्य के साथ जब हम अपने मनोमय जगत को जोड़ते हैं, तादात्म करते हैं, तो हमें उसके तीनों आध्यात्मिक लाभ-स्वास्थ्य, तेजस्विता और मनस्विता के रूप में मिलते हैं । जिस दिन पृथ्वी के लोग इस विद्या को ठीक-ठीक जान लेंगे, उस दिन सुख-शांति और समृद्धि का कोई अभाव नहीं रहेगा, पर युग परिवर्तन की इस संधिवेला में और संक्रांति अवस्था में उन लागों को अधिक श्रेय-सम्मान मिलेगा, जो इस तत्त्वज्ञान के अवगाहन को सारे विश्व में फैलाने का प्रयत्न करेंगे । 

कैसे प्रभावित करती है गायत्री साधना? 
ध्वनि विज्ञान का एक सरल प्रयोग है । एक पतले तार को दो सिरों से कसकर बाँध दीजिए । उस पर एक छोटा सा कागज का टुकडा मोड़कर रख दीजिए । अंग्रेजी के वाय के आकार का कम्पन उत्पन्न करने वाला एक यंत्र, जिसे ट्यूनिंग फोर्क कहते हैं, लीजिए । ट्यूनिंग फोर्क को किसी ठोस वस्तु से टकराकर उसमें कम्पन उत्पन्न कीजिए और उसे तार के समीप ले जाइये । हम देखेंगे कि ट्यूनिंग फोर्क के तार को स्पर्श किए बिना भी उसके कंपन के प्रभाव से तार में भी कंपन उत्पन्न हो जाते हैं और वह कागज का टुकड़ा नाचने लगता है । 

शास्त्र कथन है-सूर्यात्मा जगतस्थस्थुशश्च अर्थात सूर्य जगत की आत्मा है और हमारी चेतना हमारे शरीर जगत की आत्मा है । इन दो चेतनाओं को समान गति से कम्पित और सम्बंध स्थापित कर सकने की सामर्थ्य उन २४ अक्षरों में है, जिन्हें हम गायत्री मंत्र कहते हैं । 

विज्ञान का नियम है कि उच्चस्तर या अधिक शक्ति का प्रवाह निम्न स्तर अथवा कम शक्ति वाले केन्द्र की ओर तब तक बहता है, जब तक कि दोनों समान न हो जायें । गायत्री से प्राप्त सिद्धियाँ इसी तादात्म्य की परिपक्व अवस्था है । तब मनुष्य भौतिक शरीर में ही सूर्य की चेतना के समान सर्वव्यापी, सर्वदर्शी और सर्व समर्थ हो जाता है । वह न केवल जलवायु, लोगों के मन की बातें जान लेने की सामर्थ्य पा लेता है, वरन् उससे भी सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों का स्वामी हो जाता है । वह सारे संसार को नष्ट भी कर सकता है, किन्तु सूर्य देवता से संपर्क स्थापित होने के बाद गायत्री उपासक में उन्हीं की-सी करुणा, सद्बुद्धि और पदार्थ उत्सर्ग की भावना विकसित होने लगती है । इसी प्रकार जब गायत्री उपासक अपनी शक्तियों को प्रयत्न पूर्वक सद्गुण, सद्विचार और सत्कर्मों में लगाने लगता है, तो उसकी सफलता और भी सस्वर हो उठती है । 

१९५८ का सहस्र कुण्डीय यज्ञ, सूर्य शक्ति का विशिष्ट प्रयोग 
शांत तालाब में एक छोटा-सा पत्थर भी तरंगें उत्पन्न कर देता है । यह भाव और विज्ञान का मिलाजुला प्रयोग है । उसी प्रकार हमने पढ़ा था कि कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट रीति से गायत्री उपासनाएँ एवं यज्ञादि सम्पन्न किए जायें, तो उससे सूर्य देव की आध्यात्मिक शक्तियों को विशेष रूप से प्रभावित एवं आकर्षित किया जा सकता है । उनसे न केवल अपने लिए, वरनॅ सम्पूर्ण समाज, राष्ट्र एवं विश्व के लिए सुख, समृद्धि और शांति का अनुदान उपलब्ध किया जा सकता है । अक्टूबर सन् १९५८ में उस सूक्ष्म दर्शन का आश्रय लेकर किया गया सहस्र कुण्डीय यज्ञ एक ऐसा ही प्रयोग था । पीछे मौसम विज्ञानियों ने भी हमारी मान्यता के भाव की पुष्टि कर दी । 

१ जुलाई १९५७ से ३१ दिसम्बर १९५८ तक खगोल शास्त्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय शांत सूर्य वर्ष मनाया । इन दो वर्षों में सूर्य बिलकुल शांत रहा । इसी अवधि में हमारे उस यज्ञ की तैयारी हुई थी । साधकों ने एक वर्ष पूर्व से ही गायत्री के पुरश्चरण आरंभ किए थे और अक्टूबर १९५८ में चार दिन तक यज्ञ कर शरद् पूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति दी थी । गायत्री का देवता सविता है, इसलिए इस गायत्री अभियान का भी उद्देश्य उसका अध्ययन और प्रयोग भी था और उन उपलब्धियों से सारे विश्व समाज को लाभान्वित कराना भी, जो ऐसे अवसरों पर देवशक्तियों से सुविधा पूर्वक अर्जित की जा सकती हैं । 

यज्ञ के बाद से विश्व की गतिविधियों का हम बराबर अध्ययन कर रहे हैं और यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि न केवल प्रकृति अपने विधान बदल रही है, वरन लोगों की भावनाएँ और विचार भी तेजी से बदल रहे हैं । यूरोप की विलासिता प्रिय और भौतिकवादी प्रजा भी अध्यात्म का आश्रय पाने के लिए भागी चली आ रही है । भारत को तो उसका सुनिश्चित लाभ मिलने ही वाला है, भले ही उसका प्रत्यक्ष दर्शन सन् १९९९ के बाद दिखाई दे ।

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