फिर से संस्कार परिपाटी, घर-घर जाए मनाई।
गुरुग्राम की पावनमाटी, यही संदेशा लाई।।
यह वह परम्परा हैं जिसने, घर-घर दिए जलाए।
सोलह संस्कारों के द्वारा, वीररत्न उपजाए।
धु्रव, प्रहलाद, राम, लक्ष्मण सब, इसी ज्योति के जाए।
भरत, शत्रुघन और अभिमन्यु इसी ज्योति से पाये।
नवनिहाल बच्चों की फिर से, इस विधि करो गढ़ाई।।
क्यों जन्मे ऐसे दुनिया मे, यह मनुष्य तन पाया।
मता-पिता बांधवो तक ने, कुछ भी नहीं बताया।
ऋषियों ने था पहले से ही, ऐसा चक्र चलाया।
जन्म, मरण, मरणोत्ततर जीवन का सारा रहस्य बताया।
नामकरण-यज्ञोपवीत तक, सबकी विधि बतलाई।।
मुण्डन, विद्यारम्भ, अन्नप्राशन, जो नहीं कराते।
उनके बालक माटी के, माधव बनकर रह जाते।
क्यों विवाह में आखिर जुड़ते, इतने रिश्ते-नाते।
यह संस्कार भॉंवरों तक का, भेद सभी बतलाते।
उनको समझा नहीं गृहस्थी, नाहक मूढ़ बसाई।।
यह मनुष्य तन हैं अमूल्य, मत समझो इसको माटी।
जिसने समझा नहीं उसे तो निपट मौत की घाटी।
ज्ञानी सोच-समझ कर काटे, मूरख रो-रो काटी।
संस्कार हँस-हँसकर जीवन जीने की परिपाटी।।
परम्परा यह अति महान हैं जाए नहीं भुलाई।।
बलराम सिंह परिहार
अखण्ड ज्योति अप्रेल 1998
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