कौरवी-षडयंत्र अब भी चल रहा,
पाण्डवी ऊर्जा कहाँ सोई हुई।
कौरवो की क्रूरता सक्रिय अभी,
पार्थ की पुरुषार्थ-गति निष्क्रिय हुई ॥
आज निर्वासित हुवा सद्भाव है,
स्नेह, श्रम, सहकर वृति अभाव है।
सदाशयता के लिया है स्थान कब,
धनान्धो-धृतराष्ट्र मति खोई हुई॥
द्रोपदी, अब भी सुरक्षित है कहाँ,
नारियो पर क्रूर द्रष्टि जहाँ-तहाँ।
दुःशासन-बाहुबली बदनियत है,
दर्प सत्ता-दुर्योधन का कम नही॥
आज भी लुटती स्वदेशी सम्पदा,
आ रही जनतंत्र-बृज पर आपदा॥
क्रूरता गोमांस के निर्यात की,
क्यों तुम्हे गोपाल ! खलती ही नही॥
विदेशी आयात कालियादेह है,
विषैला जनतंत्र-जमना गेह है।
नाथने वैश्वीकरण के नाग को,
कृष्ण ! क्या आई नही अब भी घड़ी॥
पार्थ के पुरुषार्थ को झकझोरने,
कौरवी दुष्चक्र को अब तोड़ने।
महाभारत हो गया अनिवार्य है,
फ़िर जरुरत ज्ञान-गीता की हुई।
होइए जनचेतना मे अवतरित,
प्रेरणा जनक्रांति की करने त्वरित।
भार पापो का बढ़ा है धारा पर,
अवतरण की आपके वेला हुई॥
- मंगलविजय ' विजयवर्गीय अखंड ज्योति अगस्त २००६
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें