चलो रे मन, शांतिकुंज सुखधाम।
जहाँ गूंजती हैं गुरुवर की वाणी आठों याम॥
ज्योति अखंड जहाँ जलती हैं, नित नूतन आशा जगती हैं।
सफल मनोरथ करती जिसकी माटी ललित ललाम॥
जन सेवा का सार जहाँ हैं, देवोपम संसार जहाँ हैं।
प्रतिभाएँ रहती हैं तजकर, धन-साधन-पद-नाम॥
जहाँ सहज मन से मन मिलता, अनदेखा अपनापन मिलता।
सुधा बरसती हैं, कण-कण से जहाँ सुबह और शाम॥
जहाँ न अपना-बेगाना, सीखा सुख देकर सुख पाना।
पीर बँटा लेते सब देकर अपना सुख-आराम॥
जहाँ कामनाएँ मिट जाती, करुणा की धारा लहराती।
स्वार्थ-भाव खोकर मानव का मन होता निष्काम॥
नवयुग का युगतीर्थ यहीं हैं, शान्ति न इतनी और कहीं हैं।
तम डूबे जग ने देखी हैं, भोर यहीं अभिराम॥
जो जीवन इससे जुड़ जाते, अनगिन पुण्य उन्हें मिल जाते।
वे इसके पावन परिसर मे पातें चारों धाम॥
जन जन बहुत विकल जब देखे, शापित नयन सजल जब देखे।
सिद्ध रसायन देने आए उन्हें यहीं श्री राम॥
सतयुग में विश्वाश जहाँ हैं, बढ़ने का उल्लास जहाँ हैं।
उस पावन धरती को कर ले श्रद्धा सहित प्रणाम॥
--शचिन्द्र भटनागर * अखंड ज्योति नवम्बर १९९९
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