युगद्रष्टा ने हैं चिन्तन के मेघ बहुत बरसाए,
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
लगता है, ज्यों कई जनम के भाग्य हमारे जागे,
आतुर है आकाश बरसने को आँखों के आगे,
करना है पुरुषार्थ, बादलो का जल हमें संजोना,
अनुपम अवसर मिला हमें जो, उसे न हमको खोना है,
भाग्यवान है हम कि भूमि पर इस वेला मे आए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
ऋषि के शब्द-शब्द है ऐसे धधक रहे अंगारे,
दुश्चिन्तन-दुर्भाव दोष मिट जाते सभी हमारे,
आत्महीनता से जिनके मन है निस्तेज प्रकम्पित,
पाकर उनकी तपन, वही होंगे सक्रिय, उत्साहित,
हो प्रयास, जिससे वह ऊष्मा जन-जन को मिल पाए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
दिन क्या, पल-पल का भी होता मूल्य बहुत खेती मे,
मेहनत से तैयार भूमि होती है धीमे-धीमे,
मोसम है उपयुक्त, व्यर्थ हम समय न बिल्कुल खोये,
गुरु के क्रांति-बीज मानव की मनोभूमि मे बोए,
सदाचार की जनहितकारी फसल यहाँ लहराए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
गुरुवर की प्रेरणा भरी हैं सरल सहज वाणी मे,
भर सकती है प्रखर चेतना वह प्राणी-प्राणी मे,
परिवर्तन के सूत्र स्वयं समझे, सबको समझाए,
नई सुबह के लिए सभी मे दृढ विश्वाश जगाये,
शिथिल नही हो पांव, न कोई आँख कहीं अलसाये |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
_शचीन्द्र भटनागर
अखंड ज्योति जुलाई २००८
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