सोमवार, 7 मार्च 2011

दिव्य संवेदनाओं का जागरण

संवेदना दिव्य दृष्टि धरती का स्वर्गीकरण महाकाल का निश्चय है, जो अचल और अटल है, जिसे होना है-होकर रहेगा । इन दिनों हमारा एक ही कर्तव्य है-अपनी दिव्य संवेदनाओं का जागरण । यही वह तरीका है, जिसे अपनाकर हम भावी परिस्थितियों में रहने लायक हो सकते हैं । करना उसी तरह होगा, जैसा ठक्कर बापा ने किया । 

उन दिनों वह बढ़वाण में मुख्य इंजीनियर थे । रहन-सहन भी पढ़ाई के अनुरूप था । एक बार सफाई करने वाला हरिजन उनके मकान मे मैला साफ करने आया । उसका सूखा शरीर, मरियल चेहरा, फटे कपड़े उसकी दीनता की कहानी रो-रोकर सुना रहे थे । इंजीनियर अमृत लाल ठक्कर ने उसे सलाह दी-''भाई! साफ-सफाई से रहा करो, कपड़े थोड़ा ठीक पहनों ।'' हरिजन व्यक्ति ने कहा-'' बाबू, मैं इंजीनियर नहीं हूँ, जो कोट-पैंट पहन सकूँ ।'' 
''क्या कठिनाइयाँ हैं?''-ठक्कर ने पूछा । 
'' वैभव की दीवारों और शान-शौकत की पहरेदारी में गरीबों की बिलखती आवाजें नहीं घुसा करती हैं । शायद आप हमारी स्थिति में रहते तो समझ पाते ।'' बूढ़े के वाक्यों ने तीर की तरह उनके मर्म को भेद दिया । गहरी तिलमिलाहट हुई । ठीक ही तो कह रहा है यह व्यक्ति । कोरी वाणी ने कब-किसका कल्याण किया है । संवेदनाशील की एक ही पहचान है-वह जो भी कहता है-आचरण से । यदि ऐसा नहीं है तो समझना चाहिए कि बुद्धि ने पुष्पित वाणी का नया जामा पहन लिया है । जो हमेशा से अप्रमाणित रहा है और रहेगा । उपदेष्ट को सीखने वाले के साथ अपनी अनुभूति को एक करना पड़ता है । अपनत्व के अनुपात के बिना भला महत्वपूर्ण जीवन-विद्या कब गले उतरी है! 

बस फिर क्या था-आ पहुँचीं परिवर्तन की घड़ियाँ । नौकरी छोड़ दी-कोट पैंट को तिलांजलि दे डाली, आलीशान पलैट को लात मार दी और सचेतन संवेदनाओं से पोषित प्रबल प्राण लेकर आ पहुँचे हरिजनों की बस्ती में । एक टूटी-सी झोपड़ी में रहने लगे । सबके यहाँ सफाई करने वाले हरिजनों के यहाँ वे खुद सफाई करते । अब वे हरिजनों के हरिजन हो गए । उन्हें सिखाते, देखो इस स्थिति में भी किस तरह स्वच्छ रहा जा सकता है, सुसंस्कृत बना जा सकता है । 

अतिरिक्त समय में उनके बच्चों को पढ़ाते । प्रौढ़ों को पुस्तकों से पढ़कर जीवनोपयोगी बातें सुनाते, सही ढंग से रहने के तरीके बताते । आरंभ में अंशकालिक, बाद में पूर्णरूपेण सेवा में निरत अमृतलाल ठक्कर अब सभी के ठक्कर बापा हो गए थे । दुःखियों एवं पीड़ितों की पीड़ा को नीलकंठ बन पीने वाले बापा की संवेदनाओं का यह अद्भुत स्वरूप देखकर महात्मा गाँधी ने उनके बारे में कहा-''काश! मैं भी बापा जैसे संवेदनाओं की पूँजी जुटा पाता तो अपने को धन्य मानता ।'' 

देश के किसी कोने में पीड़ित मानवता की पुकार उठी हो-बापा के मन में बसे भगवान् विष्णु के लिए यह गज की पीड़ा की तरह होती और वे गरूड़ वाहन छोड़कर दौड़ पड़ते । जन-करुणा की सरिता उनके पीछे-पीछे चल पड़ती । 

संवेदनशील को ही सही दृष्टि मिलती है । बाकी तो आँखों के रहते भी दृष्टि-विहीन बने रहते हैं । उन्हें मानवता की तड़फड़ाहट दिखाई नहीं पड़ती है । बापा के पास यही दिव्यदृष्टि थी । वह उस समय जयपुर में थे । जयपुर जिसे भारत का पेरिस कहा जाता है । लोग जिसके वैभव को बखान करते नहीं अघाते थे । बापा ने जयपुर देखा, विलास नहीं रुचा । उन्हें देखा था । उनकी रग-रग इन दीन-हीनों की पीड़ा से कराह उठी । वे जुट पड़े, जनसहयोग भी उमड़ पड़ा-वहाँ के हरिजनों की दशा सुधारी । 

किशोर लाल मश्रूवाला के शब्दों में-''बापा की संवेदनाओं के आकषर्ण में बँधे-लिपटे हरि उनके पास डोलते थे ।'' बापा के शब्दों में-''मेरा हरि दीन-दलितों की कुटियों में रहता है, जिससे मैं तद्रूप हो गया हूँ । एक दिन बापा दिल्ली में हरिजन निवास में बैठे गुजराती का भजन गा रहे थे- 

हरिना जन तो मुक्ति न माँगे 
माँगे जनभोजनम् अवतार रे । 
नित सेवा नित कीर्तन ओच्छाव 
निरखवा नंद कुमार रे । 

वहाँ उपस्थित वियोगी हरि ने पूछा-'' आपने देखा है नंद कुमार को?'' वह भावविह्नल हो बोल पड़े-'' क्यों नहीं! नंदकुमार का दशर्न तो मैंने कितने रूपों में किया है-आदिवासियों एवं हरिजनों के गोकुल में ।'' 

नंदकुमार का दिव्य लोक पुनः धरा पर अवतरित होने की जल्दी में है । हम भी इसी शीघ्रता से संवेदनाओं को जाग्रत कर दिव्य दृष्टियुक्त हों, ऐसा न कर पाने पर शायद हमें उसी तरह भटकना पड़े जैसे अंधे भटकते हैं । भटकन से बचने के लिए स्वयं को भाव-संवेदनाओं के राज्य में रहने के योग्य बनाएँ । यही क्षण हमारी आत्मजाग्रति का क्षण सिद्ध हो ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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