सोमवार, 7 मार्च 2011

जब अंतः में लौ जली तो .......

सालों-साल से बना घना अँधेरा समाप्त होने में एक क्षण लगता है । पर कब? जिस क्षण माचिस की एक तीली जल उठे । जीवन का अँधेरा भी उसी पल से छटने-मिटने लगता है, जिस पल संवेदनाओं की लौ जल उठे, शरीर व मन की सारी शक्तियाँ उसे बढ़ाने, व्यापक बनाने में जुट जाएँ । फिर विषमताएँ और अवरोध उसे बुझा नहीं पाते । वह व्यापकतर बनती है । 

टैगोर ने ऐसों के लिए ही लिखी है- 
''यदि झड़ बादले आधार राते दुआर देवघरे । तबे वजा्रनले । 
आपन बुकेर पाजंर ज्वालिए निए-एकला चलो रे॥'' अर्थात् यदि प्रकाश न हो, झंझावात और मूसालाधार वर्षा की अँधेरी रात में जब अपने घर के दरवाजे भी तेरे लोगों ने बंद कर लिए हों, तब उस वजा्रनल में अपने वक्ष के पिंजरे को जलाकर उस प्रकाश में अकेला चलता चल । 

कर्मवीर गाँधी के जीवन में एक दिन यही लौ धधक उठी । जल गए उसमें मान-सम्मान, महत्वाकांक्षाएँ, पद-प्रतिष्ठा, सभी कुछ । उस समय वह दक्षिण भारत का दौरा कर रहे थे । अफ्रीका से लौटने के बाद कर्मवीर के रुप में उनकी ख्याति थी, पर अभी महात्मा नहीं बने थे । रास्ते में देखा-एक युवा लड़की फटी धोती से जैसे-तैसे अपना शरीर ढके हुए थी । उसे धोती की जगह मैला-कुचैला चीथड़ा कहना ज्यादा ठीक होगा । टोकरी उठाए चली जा रही उस लड़की को सभी ने देखा । इन दृष्टियों में विरक्ति, उपेक्षा, वितृष्णा, सभी कुछ था, नहीं थी तो सिर्फ संवेदना । दृष्टि गाँधी जी की भी गई । उनकी दृष्टि में सिर्फ यही एक थी-बाकी कुछ न था । 

उसे पास बुलाया । पूछा-''क्यों बहन, तुम इस धोती को धोती क्यों नहीं? इसके फटे हुए हिस्सों को सिल क्यों नहीं लेतीं?'' प्रश्न ने उसके अतीत, वर्तमान और आर्थिक अभावों को एक साथ कुरेद दिया । गहरे घावों को छू लेने पर जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा उसकी आँखों में उभरी । जवाब था-''कोई दूसरी धोती हो, तब तो धोऊँ, यह सिलने लायक हो, तब कहीं सिलूँ ।'' 
उत्तर सुनकर गाँधी का चेहरा शरम से लाल पड़ गया । जनता की यह दशा और जनता का सेवक कहा जाने वाला मैं-धोती-कुरता, सभी से लैस?........इतना ही नहीं, एक जोड़ी झोले में भी पड़े हैं । इससे अधिक शरमनाक बात क्या होगी! उन्होंने चुपचाप झोले से धोती निकाली और उसकी ओर बढ़ाई-''लो बहन, अपने भाई की ओर से इसे स्वीकार करो ।'' 

युवती ने हाथ बढ़ाकर उसे स्वीकार कर लिया । कृतज्ञता और खुशी के भाव उसके चेहरे पर झलक रहे थे । 

युवती गई । गाँधी जी ने पहनी धोती को ही फाड़कर दो टुकड़े किए- आधा पहनने का आधा ओढ़ने का । यही बन गयी उनकी चिरस्थायी पोशाक और एक क्षण में कर्मवीर गाँधी-महात्मा गाँधी बन गए । क्या सिर्फ पोशाक बदलने से? नहीं, अंतरंग की संरचना में उलट-फेर से । 

पास खड़े साथी यह विचित्र परिवर्तन देख रहे थे । कुछ ने कहा-'' अरे यह क्या! आपको तो बड़े-बड़े आदमियों से मिलना पड़ता है । इस विचित्र पोशाक में उनसे कैसे मिलेंगे?'' 

''स्वयं सूटेड-बूटेड, कुत्तों को मोटरों में घुमाने वाले और नौकरों को फटकारने वालों को आप लोग बड़ा कहते हैं । मुझे तरस आता है आप की समझ पर ।'' गाँधी जी का स्वर तीखा था-'' यह आप नहीं, आपके अंदर की हीनता बोल रही है । लोकसेवी के गौरव-बोध का अभाव बोल रहा है । बड़े ये नहीं हैं । बड़े वे हैं, जिनका मन सर्व-सामान्य की समस्याओं से व्याकुल रहता है, जिनकी बुद्धि इन समस्याओं के नित नए प्रभावकारी समाधान खोजती है । जिनके शरीर ने अहर्निशं सेवामहे, का व्रत ले लिया है । झूठे बड़प्पन और सच्ची महानता में से एक ही उपाय है-जनसामान्य की व्यथा समझना और उसके निवारण के लिए बिना किसी बहानेबाजी के जुट पड़ना ।'' साथी बड़प्पन और महानता का अंतर समझ चुके थे । गाँधी जी ने कहा-''इन साधारण अँगरेजों की बात करते हो, अगर मुझे इंग्लैंड के सम्राट् से मिलना पड़ा तो इसी पोशाक में मिलूँगा ।'' 

घटना का पटाक्षेप हुआ । कुछ वर्षों के बाद सचमुच सम्राट् की ओर से बुलावा आ पहुँचा । बुलावे के साथ निर्देश भी-गाँधी जी अँगरेजी वेष-भूषा में आएँ । विरोधियों ने सोचा-अब देखें, कैसे नहीं पहनते हैं अँगरेजी पोशाक । सारी महात्मागीरी धरी रह जाएगी! 

किन्तु गाँधी जी का मानस वैसा ही दृढ़ था । उन्होंने स्पष्ट कहला भेजा-मिलना सम्राट् को है, मुझे नहीं । यदि उन्हें स्वीकार हो तो मैं इसी पोशाक में मिलूँगा अन्यथा नहीं । गाँधी जी के आदर्शों के सामने सम्राट् को झुकना पड़ा । वे गए-सम्राट् जार्ज पंचम ने उनके इस विचित्र वेश को देखकर पूछा-''आखिर ऐसा क्या आ पड़ा, जो आपने यह वेश धारण किया?'' 

''निष्ठुर ही वैभव और विलास जुटा सकता है-भावनाशील के लिए यह संभव नही ।'' जार्ज पंचम के पास कोई जवाब नहीं था । 

संवेदना के बाद का चरण है-सक्रियता । बेचैन तो रोगी भी होता है, पर वह चारपाई पर पड़ा पैर पटकता और कराहता रहता है । उससे कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता । दूसरों को उसकी सेवा में जुटना पड़ता है । भाव-चेतना के जागरण से उपजी बेचैनी इससे भिन्न है । वह शक्ति को सक्रिय होने के लिए विवश करती है । 

महात्मा गाँधी के जीवन में यही सक्रियता पनपी और विकसित हुई । उन्होंने अपने जीवन-चक्र को इतनी तेजी से घुमाया कि एक साथ अनेक काम कर डाले । स्वराज्य, स्वावलंबन, ग्राम-सुधार के साथ उन्होंने एक इतना अधिक महत्वपूर्ण काम किया कि इतिहास उन्हें कभी भुला न सकेगा । वह है-समाज को लोकसेवी देना । बिनोवा, नेहरु, पटेल, कृपलानी जैसे सैकड़ों गढ़ दिए । उनका एक ही स्वप्न था-रामराज्य लाने का, जो अधूरा पड़ा है । यह और कुछ नहीं, ऐसे समाज की स्थापना है, जिसमें मनुष्य की पहचान उसकी भाव-चेतना के आधार पर हो । अगले दिनों यही होने को है, जिसमें उसका वास्तविक स्वरुप निखरकर आएगा । उसकी आज की दशा और भविष्य की दशा में कायाकल्प जैसा अंतर हर किसी को दीख पड़ेगा । हर किसी में उदार आत्मीयता हिलोरें लेती दीख पडे़गी । ऐसी दशा में परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ सिद्ध हो जाएगा । परिवर्तन के इस महापर्व में हम स्वयं भी बदलें । निष्ठुरता के झूठे लबादे को उतार फेंके । सरसता के उमगते ही दिखाई देने लगेगा-स्वर्गीय राज्य । वे परिस्थितियाँ दूर नहीं हैं । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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