सोमवार, 7 मार्च 2011

जगी संवेदना ने नारी-चेतना को झकझोर ।

मीरा ने जीवंत मनुष्य होना स्वीकारा और उसकी हर कसौटी पर अपने को खरा साबित किया । वह चित्तौड़ की राजरानी थी । वैभव, अधिकार, सम्मान, और भी बहुत कुछ, जिसकी आशा-अपेक्षा की जा सकती है, वह सब उसके पास था । नहीं थी तो सिर्फ एक चीज-मानवहितों के लिए कुछ कर गुजरने की छूट । झूठी मर्यादाओं और लोक-प्रचलनों की दुहाई देकर देवर, ननद और समूचा राज-परिवार सभी आत्मा का गला घोंटने को तत्पर थे । उन्हें सब कुछ स्वीकार था सिवाय इसके कि मीरा जनक्रांति का बीज बोए, नारी-चेतना को झकझोरने के लिए प्रकाश-दीप बनने के लिए आगे आए । 

प्रेतों और मनुष्यों की सारी बातें ही उलटी हैं-एक को अँधेरा अच्छा लगता है, दूसरे को उजाला, एक को दूसरों को परेशान करना भाता है, दूसरे को सहयोग करना । पहले के झुंड में दूसरों का रहना बड़ी दुःखद स्थिति है । एक तरफ अवरोध, दूसरी ओर अंदर की तड़प, बेचैनी, आकुलता । मीरा के मन पर मनों भार था, उसे कोई अनुभवी ही समझ सकता है । वह महलों में पड़ी बिलखा करती-''घायल की गति घायल जाने की जिण घायल होय । सूली ऊपर सेज हमारी किस विधि सोवण होय ।'' 

मीरा की बेचैनी प्रथा-प्रचलनों के जाल-जंजाल में जकड़े समाज के लिए थी । उसका दुःख-दर्द समूची नारी-जाति का था । करुणा उभरी, इसकी एक ही पहचान है, अपनी आवश्यकताएँ बिसरीं और दूसरों की जरूरतें याद आई । इसके बिना किसी पेड़ की सूखी डाल को चीरना-फाड़ना और किसी भोले-भाले आदमी की बोटी-बोटी नोंच लेना एक जैसा लगता है, पर उनका अंतर तो करुणा से भरा था-बंधन तोड़े और महलों को ठुकरा दिया, कूद पड़ी-भावों की संजीवनी लेकर अनेकों में प्राण-संचार हेतु । 

उन दिनों वह घर से बाहर थी, द्वार-द्वार जाकर बता रही थी कि नारी-पुरुष प्रत्येक क्षेत्र में समान हैं । महिलाएँ उन्हें आश्चयर्कित गर्व से देखतीं । एक दिन राजस्थान की एक महिला-केसर बाई ने उनसे पूछ ही लिया-''बहन! यह पुरुषों का काम क्यों कर रही हैं?'' 
''यह पुरुषों का काम है?'' ''और नहीं तो क्या........?'' 
''सही कहा जाए तो यह महिलाओं का काम है ।'' 
''कैसे.............? 
''भाव-श्रद्धा की सघनता नारी की विशेषताएँ हैं । उसमें देने की प्रवृत्ति है । स्वार्थों को परहित में ठुकरा देना सिर्फ उसी के लिए स्वाभाविक है । इसी कारण वह प्राणों को देकर बालक को तैयार करती है-कष्ट सहकर परिवार को संगठित बनाए रहती है । आवश्यकता उसे और अधिक व्यापक बनाने की है ।'' 

''सही है ।'' केसर बाई को तथ्य समझ में आ चुका था । षड्यंत्रकारियों के प्रयास चलते रहे-साँप पिटारी, जरह का प्याला, सभी तरह के शिगूफे रचे गए, पर दैवी चेतना का संरक्षण इन सभी से शक्तिशाली है । उन्होंने लिख भेजा-''थारी मारी न मरुँ, मेरो राख्या हारा और ।'' 

प्रश्न यह नहीं है कि मीरा को सफलता कितनी मिली? अंदर पीड़ा-पतन के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैनी उठे-पग क्रियाशीलता की ओर बढ़े-यह इतनी बड़ी सफलता है, जिस पर हजारों-हजार सफलताएँ न्योछावर हैं । 
संवत् १६३० वि. तक वह जीवित रहीं । जीवित रहने का मतलब श्वास-प्रश्वास की गति से नहीं वरन् उस दीप के समान है, जो अनेक बुझे जीवनों में नवज्योति का संचार करता है । घर-घर जाकर अपना दर्द बाँटती रहीं, प्रत्येक अंतस् में एक कसक पैदा करने कोशिश करती रहीं । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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