रविवार, 25 जुलाई 2010

मनसा-वाचा-कर्मणा


एक आदमी कथा कर रहा था उसने कहा बैगन का नाम इसलिए बैगन पड़ा क्योकि उस में गुण नहीं होता इसलिए बेगुन हो जाता है जिसे लोग बैगन कह देते है , उसको नहीं खाना चाहिए

उसकी पत्नी भी कथा सुन रही थी वह घर आई उसने बैगन को बाहर फ़ेंक दिया , जब वह आदमी घर आया बोला आज क्या बनाया है ?

पत्नी बोली दाल बनाया है, उसने कहा सुबह जो बैगन ला कर दिए थे वह मैंने फैक दी क्योकि आपने ही तो कथा में कहा था बेगुन में कोई गुन नहीं होता उसे नहीं खाना चाहिए . इसलिए मैंने फैक दी.

मनसा-वाचा-कर्मणा तीन बातें हमारे शास्त्र बताते हैं । मन से, वचन से, कर्म से तीनो एक जैसा होना चाहिए। जो मन में हो वह ही जुबान पर हो, जो कहो वह ही करो .

समय बहुत मूल्यवान

यह साबरमती आश्रम में गांधी जी के प्रवास के दिनों की बात है। एक दिन एक गाँव के कुछ लोग बापू के पास आए और उनसे कहने लगे, "बापू कल हमारे गाँव में एकसभा हो रही है, यदि आप समय निकाल कर जनता को देश की स्थिति व स्वाधीनता के प्रति कुछ शब्द कहें तो आपकी कृपा होगी।"

गांधी जी ने अपना कल का कार्यक्रम देखा और गाँव के लोगों के मुखिया से पूछा, "सभा के कार्यक्रम का समय कब है?"मुखिया ने कहा, "हमने चार बजे निश्चित कर रखा है।"गांधी जी ने आने की अपनी अनुमति दे दी।मुखिया बोला, "बापू मैं गाड़ी से एक व्यक्ति को भेज दूँगा, जो आपको ले आएगा। आपको अधिक कष्ट नहीं होगा।गांधी जी मुस्कराते हुए बोले, "अच्छी बात है, कल निश्चित समय मैं तैयार रहूँगा।"अगले दिन जब पौने चार बजे तक मुखिया का आदमी नहीं पहुँचा तो गांधी जी चिंतित हो गए। उन्होंने सोचा अगर मैं समय से नहीं पहुँचा तो लोग क्या कहेंगे। उनका समय व्यर्थ नष्ट होगा।

गांधी जी ने एक तरीक़ा सोचा और उसी के अनुसार अमल किया। कुछ समय पश्चात मुखिया गांधी जी को लेने आश्रम पहुँचा तो गांधी जी को वहाँ नहीं पाकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। लेकिन वह क्या कर सकते थे। मुखिया सभा स्थल पर पहुँचा तो उन्हें यह देख कर और अधिक आश्चर्य हुआ कि गांधी जी भाषण दे रहे हैं और सभी लोग तन्मयता से उन्हें सुन रहे हैं।भाषण के उपरांत मुखिया गांधी जी से मिला और उनसे पूछने लगा, "मैं आपको लेने आश्रम गया था लेकिन आप वहाँ नहीं मिले फिर आप यहाँ तक कैसे पहुँचे?" 

गांधी जी ने कहा, "जब आप पौने चार बजे तक नहीं पहुँचे तो मुझे चिंता हुई कि मेरे कारण इतने लोगों का समय नष्ट हो सकता है इसलिए मैंने साइकिल उठाई और तेज़ी से चलाते हुए यहाँ पहुँचा।"

मुखिया बहुत शर्मिंदा हुआ। गांधी जी ने कहा, "समय बहुत मूल्यवान होता है। हमें प्रतिदिन समय का सदुपयोग करना चाहिए। किसी भी प्रगति में समय महत्वपूर्ण होता है।" अब उस युवक की समझ में मर्म आ चुका था।

समय का मूल्य



महान वैज्ञानिक फ्रेंकलिन की एक किताब की दुकान थी. एक ग्राहक आया और एक किताब की ओर इशारा करते हुए काउंटर पर बैठे व्यक्ति से पूछा कि इसका मूल्य क्या है? उसने जबाब दिया दो डॉलर ! कुछ देर वो चुप रहा फिर उसने पूछा कि इस दुकान के मालिक कहा है? काउंटर वाला व्यक्ति बोला -अभी वो आधे घंटे बाद यहाँ आयेगे .

ग्राहक बोला - ठीक है मैं आधे घंटे बाद ही आता हूँ. मालिक के आने के बाद फिर उसने पूछा कि इसका मूल्य क्या है? मालिक ने कहा -'सवा दो डॉलर '. ग्राहक ने कहा- 'अभी तो आपका स्टाफ दो डॉलर बता रहा था .' थोड़ी देर वो चुप रहा और सोचने विचारने के बाद उसने फिर पूछा- 'अच्छा बताइए मैं आपको इसका क्या उचित मूल्य दूं ?'

फ्रेंकलिन ने इस बार कहा -'ढाई डॉलर'! इस बार ग्राहक सकते में आ गया और शिकायत के लहजे में कहा- 'पर अभी-अभी तो आपने सवा दो डॉलर बताया था !'

तब फ्रेंकलिन ने उसे शांतिपूर्वक समझाया कि ' युवक शायद तुमको समय की कीमत का ज्ञान नहीं है इतने देर से तुम मेरा और मेरे स्टाफ का समय खर्च करवा रहे हो उसका मूल्य भी तो इसमें सम्मिलित है . ' यह सुनते ही ग्राहक को समय का ज्ञान हुआ और वो पैसे देकर किताब ले गया. 

समय का तकाजा है की समय के मूल्य को समझे .

चौपाई में समाई मंत्र शक्ति


रोजगार
बिस्व भरण-पोषण कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई।।
गई बहोर गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।

विपत्ति निवारण
जपहि नामु जन आरत भारी।
मिटाई कुसंकट होहि सुखारी।।

परीक्षा में सफलता
जेहि पर कृपा करहि जनु जानी।
कवि उर अजिर नचावहि बानी।।
मोरि सुधारिहि सा सब भांती।
जासु कृपा नहि कृपा अघाती।।

विद्या प्राप्ति
गुरू गृह गए पढन रघुराई।
अलप काल विद्या सब आई।।

यात्रा में सफलता
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
ह्वदय राखि कौसलपुर राजा।।

परिवार सुख
जबते राम ब्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बढ़ाए।।

नवग्रह शांति
मोहि अनुचर कर केतिक बाता।
तेहि महं कुसमउ बाम विधाता।।

कुमार्ग से बचाव
रघुवसिन कर सुभाऊ।
मन कुपंथ पग धरहि न काऊ।।

प्रेत बाधा निवारण
प्रनवऊं पवन कुमार खल वन पावक ज्ञान धन।
जासु ह्वदय आगार बसहि राम सर चापि धर।।

पुत्र प्राप्ति
प्रेम मग्न कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।

सुयोग्य वर
सुन सिय सत्य अशीश हमारी।
पूजहि मन कामना तिहारी।।

दाम्पत्य जीवन में प्रेम
रामहि चितव माप जिहि सिया।
सो सनेहु सुख नहि कथानिया।।

सर्व सिद्धि
भाव कुभाव अनख आलसहु।
नाम जपत मंगल दिशि दसहू।।

अनिष्ट भंजन
राजिव नैन धरै धनु सायक।
भगत विपत्ति भंजन सुखदायक।।

भ्रम निवारण
राम कथा सुन्दर करतारी।
संशय विहग उडावन हारी।।

नजर दूर करने के लिए
स्याम गांर सुन्दर दोउ जोरी।
निरखहिं छबि जननी तृन तोरी।।

- पं. महेशनन्द शर्मा

सम्यक मंत्र

रजनीश एक डाक बंगले में ठहरे थे, वहां कुत्ते लगातार भौंक रहे थे, लेकिन रजनीश आराम से सो रहे थे और उसी डाक बंगले में ठहरे एक मंत्री को नींद नहीं आ रही थी। मंत्री परेशान होकर रजनीश के पास पहुंचे और कहा, "आप कैसे आराम से शो रहे हैं? मुझे कल फिर दौरे पर जाना है, लेकिन कुत्तों ने शोर मचा रखा है। कई उपाय किए, लेकिन सो नहीं पा रहा हूं, बताइए क्या करूं?"

रजनीश ने सलाह दी, "कुत्तों को भूल जाइए। वे इस इरादे से जमा नहीं हुए हैं कि आपको परेशान करें। वे आपके लिए नहीं आए हैं। उन्हें यह नहीं पता होगा कि यहां कोई मंत्री ठहरा है। कुत्ते अखबार भी नहीं पढ़ते। वे तो अपना काम कर रहे हैं, आप क्यों परेशान होते हैं?"

यह सुनकर मंत्रीजी ने कहा, "कैसे परेशान न होऊं? इतनी भौंक-भाक के बीच कैसे सोऊं?"

रजनीश ने सलाह दी, "कुत्तों के भौंकने से न लड़ें। आप शोरगुल के खिलाफ हैं, आपकी शर्त है। आप कह रहे हैं कि अगर कुत्ते भौंकना बंद कर दें, तो मैं सोऊंगा। कुत्ते आपकी नहीं सुनेंगे। आपकी शर्त है कि अगर कुत्ते भौंकना रोकें, तो आप सोएंगे। कुत्तों के भौंकने को स्वीकार कर लें, शर्त न रखें। उनसे न लड़ें, न प्रतिरोध करें। शोरगुल को अनसुना करने की कोशिश भी न करें, उन्हें स्वीकार कर लें। सोचें कि रात इतनी शांत है और कुत्ते इतने प्राणवान ढंग से भौंक रहे हैं। यही सम्यक मंत्र है। उन्हें सुनें।" 

मंत्री ने कहा, "ठीक है, ऎसा करके भी देख लेता हूं।" वे अपने कमरे में लौटे, प्रयोग किया, कुत्तों का भौंकना उनके लिए संगीत में बदल गया, उन्हें गहरी नींद आ गई।

देश सेवा

आजकल के ज्यादातर नेता पैसों के लिए बहुत नीचे गिर जाते हैं, लेकिन इस देश में चंद्रशेखर आजाद जैसे भी महापुरूष हुए, जिनकी देश के प्रति ईमानदारी व समर्पण किसी संदेह से परे था। वह अपने साथियों से कहते थे, "देश से प्रेम करना है, तो इसके लिए सब कुछ बलिदान करना पड़ेगा। इसमें किसी दूसरे से प्रेम करने के लिए तनिक भी स्थान नहीं है।" 

एक बार आजाद के माता-पिता के सामने भोजन तक का संकट उत्पन्न हो गया। चर्चा फैल गई। प्रसिद्ध पत्रकार व स्वतंत्रता सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी ने उन्हें दो सौ रूपए दिए, ताकि वह उन पैसों को अपने माता-पिता के लिए भिजवा दें। किन्तु आजाद ने वह पैसा अपने क्रांतिकारी दल पर खर्च कर दिया। बाद में जब मुलाकात हुई, तो विद्यार्थीजी ने पूछा, "क्या वह पैसा तुमने अपने घर भिजवा दिया?"

इस पर आजाद ने उत्तर दिया, "मेरे माता-पिता को तो फिर भी कभी-कभी कुछ खाने को मिल जाता है, किन्तु मेरी पार्टी के कई ऎसे युवक हैं, जिन्हें कई बार बिल्कुल ही भूखा रहना पड़ता है। मेरे माता-पिता वृद्ध हैं, मर भी गए, तो देश को कोई हानि नहीं होगी, किन्तु मेरी पार्टी का कोई युवक अगर भूख से मर जाए, तो हमारे लिए बड़े शर्म की बात होगी और देश को इससे बड़ी हानि होगी।" यह सुनकर विद्यार्थीजी निरूत्तर हो गए। 

आजाद की देशभक्ति ऎसी थी कि उसका मुकाबला संभव नहीं था। उन्होंने पार्टी के लिए मिले एक-एक पैसे का हिसाब रखा। उधारी ली भी, तो बिल्कुल समय में चुकाई। 23 जुलाई 1906 को आजाद का जन्म हुआ था।

ईमानदारी

हमारे देश में ऎसे अनेक क्रांतिकारी हुए, जो धन के प्रति बहुत सचेत रहते थे। कभी उन्होंने अपव्यय नहीं किया। जब भी धन खर्च किया, या तो अपना जीवन बचाने के लिए या फिर अपने देश के लिए। अपने दल में पैसे का हिसाब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद स्वयं सम्भालते थे, ताकि एक पैसे का भी अपव्यय न हो। साण्डर्स हत्याकाण्ड से कुछ ही दिन पहले दल के सदस्य लाहौर में थे। पैसे की कमी के कारण इन दिनों आजाद दल के प्रत्येक सदस्य को भोजन के लिए चार आने देते थे। भगत सिंह को भी चार आने दिए थे, किन्तु उन्होंने उस पैसे की पिक्चर देख डाली। पिक्चर देखकर आए, तो ईमानदारी से आजाद को बता भी दिया। आजाद ने उन्हें खूब डांटा। उनका कहना था कि इस प्रकार का दुर्व्यसन क्रांतिकारियों के लिए हानिकारक है। दल के किसी सदस्य को ऎसे कार्यो को करने की आज्ञा नहीं दी जा सकती। तब भगत सिंह ने बताया कि यह पिक्चर अमेरिका के स्वाधीनता संग्राम के विषय में थी। इससे आजाद नरम पड़े, भगत सिंह को एक चवन्नी और दी और कहा कि वह पहले जाकर खाना खा लें। 

आजाद में किसी तरह का स्वार्थ नहीं था। वह भाई-भतीजावाद और अपने गुणगान के भी खिलाफ थे। भगत सिंह ने ही एक बार आजाद से कहा था, पण्डितजी आप हमें अपनी जन्मभूमि और रिश्तेदारों के बारे में बताएं, ताकि हम देशवासियों को बता सकें कि शहीद कहां पैदा हुए। 

यह सुनकर आजाद नाराज हो गए थे और पूछा था, "तुम्हारा सम्बन्ध मुझसे है या मेरे रिश्तेदारों से? मैं नहीं चाहता कि मेरी जीवनी लिखी जाए।"

समय का सदुपयोग

राजा भतृहरि ने कहा था कि भोग नहीं भोगे जाते, हम ही भोगे जाते हैं। तप नहीं तपता, हम ही तप्त होते हैं। काल व्यतीत नहीं होता, हम ही व्यतीत होते जाते हैं। अर्थात हम सांसारिक विषय भोगों का उपभोग नहीं कर पाए, अपितु उन भोगों को प्राप्त करने की चिंता ने हम को भोग लिया। भोगों को भोगते-भोगते हम काल को नहीं काट पाए, बल्कि काल ने हमें ही नष्ट कर दिया। समय अपनी गति से चल रहा है। समय के साथ कदम मिलाकर चलने में मानव जीवन की सार्थकता है। जब ऎसा नहीं कर पाते तो सफलता से दूर हटते जाते हैं। हर श्वास के साथ जीवन की एक अमूल्य निधि यानी समय की एक इकाई कम होती जाती है, तब एक दिन यमदूत लेने आ जाते हैं। 
जब मुड़कर देखते हैं तो मालूम होता है कि हमने कितनी बेदर्दी से समय गंवाया है, उसका सदुपयोग नहीं कर सके। समय जैसी मूल्यवान संपदा का भंडार होते हुए भी हम विनिमय का धन, ज्ञान तथा लोकहित को नहीं पा सके। समय का सदुपयोग करने में समर्थ न होने पर समय हमें ही खर्च कर देता है। हम में से बहुत से लोग अपनी इस प्राकृतिक धरोहर-समय का समुचित उपयोग नहीं करते। बचपन में इतना ज्ञान नहीं होता कि समय का मूल्य समझें। एक दिन यौवन आ खड़ा होता है। वह यौवन समय के बहुमूल्य वरदान के रूप में मिलता है। इस यौवन काल में हम बहुत से काम कर सकते हैं। पर इसे निर्दयता से खर्च कर देने पर बुढ़ापा अपनी कमजोर टांगों व धुंधली आंखों से हमारा स्वागत करता है। तब हम चौंक पड़ते हैं, निराश हो जाते हैं और सिर पर हाथ रखकर चिंताओं के सागर में डूब जाते हैं। समय का किस प्रकार, किस प्रयोजन से उपभोग किया गया, इसी का लेखा-जोखा जीवन का मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। जो समय का महत्व समझेऔर उसके सदुपयोग के लिए जागरूकता के साथ तत्पर हो जाए, समझो उसे जिंदगी मिल गई।

मेहनत की कमाई ही श्रेष्ठ है

दान में सेवा भाव हो, तो वह अहंकार को बढ़ाता ही है। एक बार हातिमताई अपने मित्रों के साथ जा रहे थे। अचानक उन्हें एक भिखारी दिखाई दिया। हातिमताई उसके पास गए और उसे कुछ दान दिया। थोड़ा आगे जाकर हातिमताई ने अपने मित्र से पूछा, ‘‘मैं बहुत ही दानी हूँ। मेरी दानशीलता से मुझे कभी-कभी लगता है कि मैं बहुत ही महान हूँ। तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो ?’’

मित्र ने जवाब दिया, ‘‘हातिम, ऐसा ही एक बार मुझे भी लगा था। अपनी महानता को प्रदर्शित करने के लिए मैंने एक विशाल भोज का आयोजन किया। उसमें मैंने अपने नगर के सारे व्यक्तियों को आमंत्रित किया। मुझे लगता था कि जब सारा नगर ही मेरे द्वारा दिए गए भोज पर आएगा, तब स्वत: ही मेरी महानता सिद्ध हो जाएगी। भोज के समय मैं अपने महल की छत पर खड़ा था। वहां से मैंने देखा था कि एक व्यक्ति उस समय अपनी कुल्हाड़ी से पेड़ काट रहा था। मुझे लगा कि शायद मेरे यहां भोज है। यह बात उस व्यक्ति को मालूम नहीं है। इसलिए मैंने अपने नौकर को उस व्यक्ति के पास भेजा। कुछ समय बाद मेरा नौकर मेरे पास आया और उसने कहा कि वह व्यक्ति मेरे यहां के भोज में नहीं आ सकता।’’

यह बात मुझे अजीब-सी लगी। मैं खुद उसके पास गया और उसे भोज में आने के लिए कहा। उस व्यक्ति का जवाब था, ‘‘मैं तो अपनी मेहनत की रोटी खाता हूँ। दूसरों के दान, कृपा, भलाई का बोझ ढोना मुझे पसंद नहीं है। बस हातिम, उस दिन के बाद मैंने अपने को कभी महान नहीं कहा। हातिमताई ने यह सुनकर कहा, ‘‘मैं भी उस लकड़हारे को सचमुच समझता हूँ। दान देकर खुद को महान समझने की बजाय मेहनत की कमाई खाने वाला ही अधिक महान है।’’

स्वागत करो मृत्यु का

सजग होकर अपने जीवन को देखना एक कला है। इस प्रतिक्रिया में अपने आप समाधि लग जाती है। एक ऐसी समाधि जिसमें आदमी को स्वयं का बोध हो जाता है और संसार की फालतू बातें छूट जाती हैं। संसार का जो अनर्गल है वह हमें बहुत भारी बना देता है। जब हम दूर खड़े होकर तटस्थ भाव से अपने ही जीवन को देखने लगते हैं तो सब कुछ बहुत हल्का हो जाता है। 

सुकरात के जीवन की एक कथा है। जब उनका अंतिम समय आया, शिष्य रोने लगे। तब सुकरात ने कहा, ‘‘रोना बंद करें। मेरा शरीर शिथिल हो रहा है। लेकिन मैं लगातार प्रयास कर रहा हूं कि मैं अपनी इस मृत्यु को होशपूर्वक देखूं। अब सब कुछ छूट रहा है। जितना छूटेगा उतना ही स्वयं बच जाएगा। जगत का बोध समाप्त होगा और स्वयं का बोध जागने लगेगा। सुकरात ने कहा कि मैं आज मृत्यु को प्राप्त नहीं हो रहा, सिर्फ यह देख रहा हूँ कि मरना होता क्या है ? यह मौका मुझे आज मिला है, इसलिए आप लोग रोते हुए मेरी समाधि में व्यवधान पैदा न करें, और सचमुच तो बचते चले गए मौत होती चली गई। वे संदेश दे गए मृत्यु प्रतिदिन निकट आ रही है और जिंदगी प्रतिदिन घट रही है। इसलिए मृत्यु का भय न करें, उसके स्वागत की तैयारी की जाए।’’

सूखा नारियल अपनी खोल के भीतर पक जाता है। खोलने पर वह पूरा बाहर आता है। किंतु जो गीला नारियल होता है उसक फोड़ने पर वह अपनी खोल से चिपका रहता है। कई बार तो उसको निकालने के लिए उसके टुकड़े हो जाते हैं। ऐसा ही शरीर और आत्मा के साथ हैं। स्वयं शरीर से अलग हो जाने का अर्थ है पका हुआ होना, अपने आत्मभाव में पहुंच जाना और शरीर से चिपकते हुए मृत्यु वरण का अर्थ है गीलें खोल की तरह टुकड़े-टुकड़े होकर पिलपिले होना। इसलिए शांति से जीवन में इस बोध को लाना बड़ा उपयोगी होता है।

धर्म और अधर्म

राम के बाणों से घायल लंकापति रावण मौत के कगार पर था। उसके सगे-संबंधी उसके पास खड़े थे। तब राम ने लक्ष्मण से कहा, ‘यह ठीक है कि रावण ने अधर्म का काम किया था, जिसका सजा उसे मिली। लेकिन वह शास्त्रों और राजनीति का महान ज्ञाता है। तुम उसके पास जाकर उससे राजनीति के गुर सीख लो।’ लक्ष्मण बोले, ‘भइया, क्या आप यह सोचते हैं कि इस समय, जब वह घायल होकर मृत्यु शय्या पर पड़ा कराह रहा है, मुझे राजनीति का उपदेश देगा।’ श्रीराम ने कहा, ‘हां लक्ष्मण, रावण जैसा सत्यवादी कोई नहीं था। अहंकार ने ही उसको आज इस दशा में पहुंचाया है। अब उसका अहंकार दूर हो गया। अब वह तुम्हें अपना शत्रु नहीं मित्र समझेगा।’ लक्ष्मण राम की आज्ञा का पालन करते हुए रावण के पास गए और उसके सिरहाने के पास खड़े होकर बोले, ‘लंकाधिपति, मैं श्रीराम का छोटा भाई लक्ष्मण राजनीति का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आपके पास आया हूँ।’ 

रावण ने लक्ष्मण को एक क्षण देखा, फिर आँखें बंद कर लीं। कुछ देर खड़े रहने के बाद लक्ष्मण लौट आए और राम से कह, ‘मैंने कहा था कि इस समय रावण कुछ नहीं बताएगा। उसने मुझे देखते ही आंखें बंद कर लीं।’ राम ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘तुम यह बताओं कि तुम उसके पास किस ओर खड़े थे ?’ लक्ष्मण ने कहा, ‘मैं उसके सिरहाने की ओर खड़ा था।’ राम ने कहा, ‘रावण लंकाधिपति है। फिर जिससे ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसके चरणों की तरफ खड़े होकर प्रणाम करके अपनी बात कहनी चाहिए।’ लक्ष्मण फिर गए और उन्होंने रावण के चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया, फिर उपदेश की याचना की। इस बार रावण ने मुस्कुराते हुए लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया और कहा, ‘धर्म का कार्य करने में एक क्षण की भी देरी नहीं करनी चाहिए और अधर्म का कार्य करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए।’ लक्ष्मण ने आज तक जो नहीं सीखा था, उसे सीख लिया।

प्रकृति का नियम

इस दुनिया को चलाने वाला कोई न कोई मालिक जरूर है। यूं भी समझा जा सकता है कि वह प्रकृति के रूप में उपस्थित है। उसके नियमों के साथ छेडछाड़ करना गुनाह है और साथ चलने के मायने हैं इबादत। इस्लाम के सीरतुस्सालेहीन में एक कहानी का जिक्र है। एक बूढ़ी औरत को चरखा चलाते देखकर एक पढ़े-लिखे युवक ने उससे पूछा कि जिंदगीभर चरखा ही चलाया है या उस परवरदिगार की कोई पहचान भी की है ?

बुढ़िया ने जवाब दिया, ‘‘बेटा, सब कुछ तो इस चरखे में ही देख लिया है।’’ पढ़ा-लिखा आदमी चौंका और उसने पूछा, ‘‘कैसे ?’’ बूढ़ी औरत ने जवाब दिया, ‘‘जब मैं इस चरखे को चलाती हूँ तब यह चलता है। जब मैं इसे छोड़ देती हूँ तो बंद हो जाता है। चलाए बिना नहीं चलता। इस दुनिया में जमीन, आसमान, चांद, सूरज। ये जो बड़े-बड़े चरखे हैं, इनको भी चलाने के लिए कोई एक होना चाहिए।’’

जब तक वो चला रहा है, यह चल रहे हैं। मिसाल के तौर पर जब मैं इसे चलाती हूं तो यह मेरे हिसाब से चलता रहता है। यदि मेरे सामने कोई बैठ जाए और इस चरखे को चलाने लगे तो यह चरखा ठीक से चलेगा जब सामने वाला मेरी चाल के मुताबिक इसको चलाए। यदि वो मेरे चलाने के विपरीत चलाएगा तो यह चलेगा नहीं टूट जाएगा। बस, यही उसूल उस ऊपर वाले की दुनिया का है। उसने जिस ढंग से यह प्रकृति बनाई है, हमें नियमों का पालन करना चाहिए और यदि हम दूसरी तरफ चलने वाले बनकर उल्टा चलाएंगे यानी प्रकृति के नियमों को तोड़ेंगे, उस परवरदिगार के उसूलों के नहीं मानेंगे तो नुकसान उठाएंगे। इसी का नाम इबादत है। बूढ़ी औरत की बात उस आदमी की समझ में आ गई। पर्यावरण का संकट, आदमी की सेहत की परेशानी उल्टी चाल से ही पैदा होती है।

जीवन का कर्तव्य समय का मूल्य और सदुपयोग


श्रीपरमात्माकी इस विचित्र सृष्टि में मनुष्य-शरीर एक अमूल्य एवं विलक्षण वस्तु है। यह उन्नति करने का एक सर्वोत्तम साधन है। इसको प्राप्त करके सर्वोत्तम सिद्धि के लिये सदा सतत चेष्टा करनी चाहिये। इसके लिये सर्वप्रथम आवश्यकता है-ध्येय के निश्चय करने की। जब तक मनुष्य जीवन का कोई ध्येय-उद्देश्य ही नहीं बनाता, तब तक वह वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य ही नहीं: क्योंकि उद्देश्यविहीन जीवन पशु-जीवन से भी निकृष्ट है, किन्तु जैसे मनुष्य-शरीर सर्वोत्तम है, वैसे इसका उद्देश्य भी सर्वोत्तम ही होना चाहिये। 

सर्वोत्तम वस्तु है, परमात्मा। इसलिये मानव-जीवन का सर्वोत्तम ध्येय है-परमात्मा की प्राप्ति, जिसके लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत

इस परमात्मा की प्राप्ति के लिये सबसे पहला और प्रधान साधन है-‘जीवन के समय का सदुपयोग।’ समय बहुत ही अमूल्य वस्तु है। जगत् के लोगों ने पैसों को तो बड़ी वस्तु समझा है, किन्तु समय को बहुत ही कम मनुष्यों ने मूल्य दिया है; पर वस्तुत: विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि समय बहुत ही मूल्यवान् वस्तु है। विचार कीजिये-अपना समय देकर हम पैसे प्राप्त कर सकते हैं, पर पैसे देकर समय नहीं खरीद सकते। अन्तकाल में जब आयु शेष हो जाती है, तब लाखों रूपये देने पर भी एक घंटे समय की कौन कहे एक मिनट भी नहीं मिल सकता। समय से विद्या प्राप्त की जा सकती है, पर विद्या से समय नहीं मिलता। समय पाकर एक मनुष्य से कई मनुष्य बन जाते हैं, अर्थात् बहुत बड़ा परिवार बढ़ सकता है; पर समस्त परिवार मिलकर भी मनुष्य की आयु नहीं बढ़ा सकता। समय खर्च करने से संसार में बड़ी भारी प्रसिद्धि हो जाती है, पर उस प्रसिद्धि से जीवन नहीं बढ़ सकता। समय लगाकर हम जमीन-जायदाद, हाथी-घोड़े, धन-मकान आदि अनेक चल-अचल सामग्री एकत्र कर सकते हैं, पर उन सम्पूर्ण सामग्रियों से भी आयु-वृद्धि नहीं हो सकती। यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि रुपये, विद्या, परिवार-प्रसिद्धि, अनेक सामग्री आदि के रहते हुए भी जीवन का समय न रहने से मनुष्य मर जाता है, किन्तु उम्र रहने पर तो सर्वस्व नष्ट हो जाने पर भी मनुष्य जीवित रह सकता है। 

इसलिये जीवन के आधारभूत इस समय को बड़ी ही सावधानी के साथ सदुपयोग में लाना चाहिये, नहीं तो यह बात-ही-बात में बीत जायगा, क्योंकि यह तो प्रतिक्षण बड़ी तेजी के साथ नष्ट हुआ जा रहा है। रुपये आदि तो जब हम खर्च करते हैं तभी खर्च होते हैं, नहीं तो तिजोरी में पड़े रहते हैं, पर समय तो अपने-आप ही खर्च होता चला जा रहा है, उसका खर्च होना कभी बंद होता ही नहीं। अन्य वस्तुएँ तो नष्ट होने पर भी पुन: उत्पन्न की जा सकती हैं, पर गया हुआ समय किसी प्रकार भी लौटाया नहीं जा सकता। अत: हमें उचित है कि बचे हुए समय के एक क्षण को निरर्थक नष्ट न होने देकर अति-कृपण के धन की तरह उसकी कीमत समझकर उसे ऊँचे-से-ऊँचे काम में लगायें। प्रथम श्रेणी का सर्वोत्कृष्ट काम है-सांसारिक निर्वाह के लिये न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन। इनमें से दूसरी श्रेणी के काम में लगाया हुआ समय भी भाव के सर्वथा निष्काम होने पर पहली श्रेणी में ही गिना जा सकता है। इसके लिये हमें समय का विभाग कर लेना चाहिये, जैसे कि भगवान् ने कहा है-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्रावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।-
(गीता 6/17)

‘दु:खों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।’ इस श्लोक में अवश्य करने की चार बातें बतलायी गयी हैं- 

1. युक्ताहारविहार,
2. शरीर-निर्वाहार्थ उचित चेष्टा,
3. यथायोग्य सोना और
4. यथायोग्य जागना।

पहले विभाग में शरीर को सशक्त और स्वस्थ रखने के लिये शौच, स्नान, व्यायाम, खान-पान, औषध-सेवन आदि चेष्टाएँ सम्मिलित हैं। दूसरा विभाग है- जीविका पैदा करने के लिये; जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और वैश्य आदि के लिये अपने-अपने वर्ण-धर्म के अनुसार न्याययुक्त कर्तव्यकर्मों का पालन करना बतलाया गया है। तीसरा विभाग है-शयन करने के लिये, इसमें कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं है। अब चौथा प्रमुख विभाग है-जगाने का। इस श्लोक में ‘अवबोध’ का अर्थ तो रात्रि में छ: घंटे सोकर अन्य समय में जागते रहना और उनमें प्रात:-सायं दिन भर में छ: घंटे साधन करना है। परन्तु ‘अवबोध’ से यहाँ वस्तु मोहनिद्रा से जागकर परमात्मा की प्राप्ति करने की बात को ही प्रधान समझना चाहिये। श्रीशंकराचार्यजी ने भी कहा है-‘जागर्ति को वा सदसद्विवेकी।’

अब इस पर विचार कीजिये। हमारे पास समय है चौबीस घंटे और काम है चार। तब समान विभाग करने से एक-एक कार्य के लिये छ:-छ: घंटे मिलते हैं। उपर्युक्त चार कामों में आहार-विहार और शयन-ये दो तो खर्च के काम हैं और व्यापार तथा अवबोध (साधन करना)-ये दो उपार्जन के काम है। इस प्रकार खर्च और उपार्जन दोनों के लिये क्रमश: बारह-बारह घंटे मिलते हैं। इनमें लगाने के लिये हमारे पास पूँजी हैं दो-एक समय और दूसरा द्रव्य; इनमें से द्रव्य तो लौकिक पूँजी है और समय अलौकिक पूँजी है।

-स्वामी रामसुखदास

सफलता के सूत्र

सफलता के लिए क्या जरूरी है टाइम मैनेजमेंट। उपलब्ध समय में ईमानदारी से एक-एक क्षण का भरपूर उपयोग करने से ही सफलता हासिल होती है। प्राय: लोग समय की कमी का रोना रोते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि कामयाब से कामयाब आदमी के पास भी 24 घंटे ही होते हैं। यानी अगर जीवन में कुछ करना है तो समय की कद्र करें, उसे बर्बाद न करें। जो समय को बर्बाद करता है, समय भी उसे बर्बाद कर देता है। समय का हनन करने वाले आदमी का चित्त हमेशा उद्विग्न रहता है और वह असहाय तथा भ्रमित होकर यूं ही भटकता रहता है। प्रतिपल का उपयोग करने वाले कभी पराजित नहीं हो सकते। समय का हर क्षण का उपयोग आदमी को विलक्षण और अद्भुत बना देता है। समय संसार का अनमोल चीज है। बीता पल और गुजरा कल किसी के लिए नहीं लौटा है और निश्चय ही आपके लिए भी नहीं लौटेगा। 

"टाइम इज मनी" यानी "समय ही धन है " की अवधारणा किसी भी काल में झुठलाई नहीं जा सकती है। महात्मा गाँधी न केवल धन की पाई-पाई का हिसाब रखते थे परंतु समय के क्षण-क्षण का भी हिसाब रखते थे। संसार में ऎसा कौन सा महापुरूष हुआ है जो समय की महत्ता को नहीं समझा हो, समय का सदुपयोग तभी मुमकिन है जब हम इसकी आदत डाल लें। कुछ न करने से कुछ करना अच्छा होता है, इसकी जिन्हें समझ है वे दौड में बहुत आगे चले जाते हैं। जी हां दोस्तो, समय को पकडकर रखना संभव ही नहीं है, यह तो भागा ही चला जाता है । अत: एक-एक क्षण बेशकीमती है यह समझकर उसका सदुपयोग करना जरूरी है। 

प्राथमिकताएं तय करें:
एक समय में एक ही काम करने से कामयाबी के आप करीब पहुंचते हैं। आप दैनिक स्तर पर अपनी प्राथमिकताएं तय करें। अगर इसमें कोई परेशानी हो रही है तो साप्ताहिक आधार पर प्राथमिकताएं तय करें। जब आप अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप पहल और प्रयास करेंगे तो आपकी जीत की संभावनाएं बढ जाती हैं। यह आपके व्यवसायिक और व्यक्तिगत टारगेट पाने के लिए अचूक टिप्स है। इससे आपका काम तेज गति से होगा।

लक्ष्य पर रखें नजर :
कामयाब आदमी टारगेट को तय कर उन पर अमल आरंभ करता है। लक्ष्य भले ही अल्पकालिक हों या दीघ्रकालिक "क्या करना है।" इसे जरूर सूचिबद्ध कर लें। टारगेट आपके जीवन और समय का दिशा तय करता है। खोई दौलत फिर भी कमाई जा सकती है। खोया सेहत चिकित्सा द्वारा लौटाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय किसी प्रकार नहीं लौट सकता, इसके लिए केवल खेद ही बचा रहता है। अपने टारगेट पर रखें नजर और कदम रखें उस डगर पर। 

उत्पादक योजना बनाएं:
हर आदमी दिन के किसी खास पहर में उत्पादकता के हिसाब से सर्वश्रेष्ठ होता है। जब वह भरा हुआ होता है। उदाहरण के लिए कोई सुबह के समय अच्छा काम करता है तो कोई रात को अपना बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। आपना बेहतर प्रदर्शन समय जानें और शुरू हो जाएं। आप इस समय को अपनी महत्वकांक्षा और मंजिल को प्राप्त करने में लगाएं। आपका प्रदर्शन तो अच्छा होगा ही आपको प्रसन्नता भी भरपूर मिलेगी।

कल पर न टालें:
"काल करे सो आज कर, आज करै सो अब ।" की बात गांठ बांध लें। टालमटोल की आदत से आप वहीं के वहीं बने रहते हैं। कल कभी नहीं आता है और जो भी करना है वह आज और अभी करने की आदत डालें। कल कभी नहीं आता है। आपका हर पल कीमती है। समय काटने भर की जिन्हें चिंता हो वे कभी भी इसके मूल्य को समझ नहीं पाते और अंत में हाथ मलते देखे जाते हैं। आपकी टालू प्रवृति से पत्थर भी पर्वत जैसा हो जाएगा।

संतुलन बनाए रखें:
जीवन के सात पहलू होते हैं। वे हैं सेहत , परिवार , अर्थ यानी दौलत, बौद्धिकता, सामाजिक , व्यवसायिक और आध्यात्मिक। इस क्रम में कोई भी व्यक्ति प्रत्येक को बराबर समय नहीं दे सकता । हर एक के लिए पर्याप्त समय तय करें।पूरी तरह से संतुलित जीवन का यही मूलमंत्र है। सफलता का राज इसी में निहित है कि आप किस तरह व्यवसायिक , सामाजिक और व्यक्तिगत दायित्वों का निर्वाह करती है। 

समय होगा मुटठी में :
- जहां तक हो समय सीमा निर्धारित करें।

-नाकामी का रोना रोने के बजाय गलतियों से सबक लेना सीखें।

-समय की बर्बादी से बचें। प्रत्येक क्षण कीमती है।

-समय पर काम पूरा करने के बाद खुद को शाबाशी दें।

इनका भी रखें ध्यान:
-रूकावटों से बचें यानी फिजूल की फोनवार्ता या अनापेक्षित आगंतुक ।

-दूसरों को दिये गये कामों में दखलंदाजी न करें।

-अनिर्णय और काम की टालमटोल से परहेज करें।

-बिना योजना के काम शुरू न करें।

- तनाव या थकावट को खुद पर हावी होने न दें।

-कभी कभार " न " कहना भी सीखें।

-व्यक्तिगत स्तर पर अव्यवस्थित न रहें।

सदुपयोग की महत्ता

एक राजा आखेट के लिए वन की ओर निकला। शिकार की खोज में भटकता हुआ काफी दूर निकल गया। उसके सैनिक और अंगरक्षक काफी पीछे छूट गए। वह काफी थक गया था, उसे जोरों की प्यास भी लगी थी। भूख-प्यास से पीडि़त वह एक वनवासी के द्वार पर पहुंचा। वहां उसे आतिथ्य मिला तो उसकी जान बची। उसके सेवाभाव से राजा बड़ा खुश हुआ। चलते समय राजा ने वनवासी से कहा, 'मैं इस राज्य का शासक हूं। तुम्हारी सज्जनता से प्रभावित होकर तुम्हें चंदन का वन प्रदान करता हूं ताकि तुम्हारा आगे का जीवन सुखमय बीते।' चंदन का क्या महत्व है और उसका किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है, उसकी जानकारी वनवासी को नहीं थी। जानकारी के अभाव में वह चंदन के वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर शहर में बेचने लगा। इस प्रकार किसी तरह उसकी जीविका चलने लगी। 

धीरे-धीरे सारे वृक्ष समाप्त हो गए। एक अंतिम वृक्ष बचा। वर्षा होने के कारण कोयला न बन सका तो उसने लकड़ी को ही बेचने का निश्चय किया। लकड़ी का गट्ठर लेकर जब वह बाजार पहुँचा तो सुगंध से प्रभावित लोगों ने उन लकडि़यों का बड़ा भारी मूल्य लगाया। विस्मय से भरे वनवासी ने इसका कारण उन लोगों से पूछा तो लोगों ने बताया- यह चंदन की लकड़ी है, बहुत मूल्यवान है। यदि तुम्हारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका बहुत मूल्य प्राप्त कर सकते हो। 

वनवासी अपनी नासमझी पर पश्चाताप करने लगा। इतना मूल्यवान चंदन वन उसने कौड़ी के मोल कोयले के रूप में बेच डाला। उसे पछताते देख एक विवेकशील व्यक्तिने कहा- मित्र! पछताओ मत, यह सारी दुनिया तुम्हारी ही तरह नासमझ है। जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य है, पर लोग उसे वासना और तृष्णा के लिए कौड़ी के मोल गंवाते हैं। तुम्हारे पास जो एक वृक्ष बचा है उसी का सदुपयोग कर लो तो कम नहीं। बहुत कुछ गंवाकर भी अंत में यदि कोई मनुष्य संभल जाए तो वह बुद्धिमान ही माना जाता है।

समय की संपदा नष्ट न करें


समय अपनी गति से चल रहा है, चल ही नहीं रहा-भाग रहा है। निरंतर गतिमान इस समय के साथ कदम मिलाकर चलने पर ही मानव जीवन की सार्थकता है। इसके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है। पिछड़ना सफलता से दूर हटना है, उसकी ओर गतिशील होना नहीं।


सुनते हैं कि मनुष्य की साँसें गिनी हुई हैं। एक श्वांस के साथ जीवन की इस अमूल्य निधि की एक इकाई कम हो गई। एक -एक इकाइयाँ कम होती जाएँ तो जीवन की पूँजी एक दिन चुक जाती है। उस समय मृत्यु दूत बनकर लेने आ जाते हैं, उसके साथ जाते-जाते व्यक्ति पीछे मुड़कर देखता है तो उसे ज्ञात हो जाता है कि उसने कितनी बेदर्दी से समय को गँवाया है या उसके एक -एक क्षण का सदुपयोग किया है।


संपदा का, विद्या का रोना सभी को रोते देखा है। कोई धन के अभाव में दुःखी है तो किसी के पास ज्ञान नहीं- विद्या नहीं,उसके लिए सिर पीट रहा है। समझ में नहीं आता कि यह हनुमान कब अपनी सामर्थ्य को समझेंगे तथा एक छलांग मारकर लंका पहुंच जाएँगे। विश्व की संपदा, विश्व का ज्ञान भंडार तो उनकी बाट जोह रहा है। समय जैसी मूल्यवान् संपदा का भंडार भरा होते हुए भी जो विनिमय कर धन ज्ञान तथा लोकहित को नहीं पा सकते उनसे अधिक अज्ञानी किसे कहा जाए ?

समय अमूल्य है, समय को जिसने बिना सोचे -समझे खर्च कर दिया वह जीवन पूँजी भी यों ही गँवा देता है। यह पूँजी अपने आप खर्च होती है, आप कृपण बनकर उसे सोने-चाँदी -सिक्के की तरह जोड़कर नहीं रख सकते। यह गतिवान् है, आप अपनी अन्य संपदाओं की तरह उस पर अधिकार जमा नहीं सकते। आपका उसपर स्वामित्व वहीं तक है कि आप उसका सदुपयोग कर लें।


जिस व्यक्ति में समय को खर्चने की, उसका सदुपयोग करने की सामर्थ्य नहीं होती तो समय उसे खर्च कर देता है। दिन -रात के चौबीस घंटे कम नहीं होते। इस समय को हम किस प्रकार व्यतीत करते हैं, इसका लेखा -जोखा करते चले तो हमें ज्ञात हो जाता है कि हम जी रहे हैं या समय को व्यर्थ गँवाकर एक प्रकार की आत्महत्या कर रहे हैं।

उपलब्ध क्षणों का सदुपयोग


प्रतिदिन एक घंटा समय यदि मनुष्य नित्य लगाया करे तो उतने छोटे समय से भी वह कुछ ही दिनों में बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य पूरे कर सकता है। एक घंटे में चालीस पृष्ठ पढ़ने से महीने में बारह सौ पृष्ठ और साल में करीब पंद्रह हजार पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। यह क्रम दस वर्ष जारी रहे तो डेढ़ लाख पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। इतने पृष्ठों में कई सौ ग्रंथ हो सकते हैं। यदि वे एक ही किसी विषय के हों तो वह व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ बन सकता है। एक घंटा प्रतिदिन कोई व्यक्ति विदेशी भाषाएँ सीखने में लगावे तो वह मनुष्य निःसंदेह तीन वर्ष में इस संसार की सब भाषाओं का ज्ञाता बन सकता है। एक घंटा प्रतिदिन व्यायाम में कोई व्यक्ति लगाया करे तो अपने आय को पंद्रह वर्ष बढ़ा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के प्रख्यात गणित आचार्य चार्ल्स फास्ट ने प्रतिदिन एक घंटा गणित सीखने का नियम बनाया था और उस नियम पर अंत तक डटे रहकर ही इतनी प्रवीणता प्राप्त की।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर समय के बड़े पाबंद थे। जब वे कालेज जाते तो रास्ते के दुकानदार अपनी घड़ियाँ उन्हें देखकर ठीक करते थे। वे जानते थे कि विद्यासागर कभी एक मिनट भी आगे-पीछे नहीं चलते।

एक विद्वान ने अपने दरवाजे पर लिख रखा था। ‘‘कृपया बेकार मत बैठिये। यहाँ पधारने की कृपा की है तो मेरे काम में कुछ मदद भी कीजिये। साधारण मनुष्य जिस समय को बेकार की बातों में खर्च करते रहते हैं, उसे विवेकशील लोग किसी उपयोगी कार्य में लगाते हैं। यही आदत है जो सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों को भी सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा देती है। माजार्ट ने हर घड़ी उपयोगी कार्य में लगे रहना अपने जीवन का आदर्श बना लिया था। वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा रहकर भी कुछ करता रहा। रैक्यूम नामक प्रसिद्ध ग्रंथ उसने मौत से लड़ते -लड़ते पूरा किया।

ब्रिटिश कॉमनवेल्थ और प्रोटेक्टरेट के मंत्री का अत्यधिक व्यस्त उत्तरदायित्व वहन करते हुए मिल्टन ने ‘पैराडाइस लास्ट’ की रचना की। राजकाज से उसे बहुत कम समय मिल पाता था, तो भी जितने कुछ मिनट वह बचा पाता उसी में उस काव्य की रचना कर लेता। ईस्ट इंडिया हाउस की क्लर्की करते हुए जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने सर्वोत्तम ग्रंथों की रचना की। गैलेलियों दवादारु बेचने का धंधा करता था तो भी उसने थोड़ा -थोड़ा समय बचाकर विज्ञान के महत्त्वपूर्ण आविष्कार कर डाले।

हेनरी किरक व्हाट को सबसे बडा समय का अभाव रहता था, पर घर से दफ्तर तक पैदल आते और जाने के समय का सदुपयोग करके उसने ग्रीक भाषा सीखी। फौजी डाक्टर बनने पर अधिकांश समय घोड़े की पीठ पर बीतता था। उसने उस समय को भी व्यर्थ न जाने दिया और रास्ता पार करने के साथ- साथ उसने इटेलियन और फ्रेंच भाषाएँ भी पढ़ लीं।

यह याद रखने की बात है कि-परमात्मा एक समय में एक ही क्षण हमें देता है और दूसरा क्षण देने से पूर्व उस पहले वाले क्षण को छीन लेता है। यदि वर्तमान काल में उपलब्ध क्षणों का हम सदुपयोग नहीं करते तो वे एक -एक करके छिनते चले जाएँगे,चाहे अंत में खाली हाथ ही रहना पड़ेगा।’’

एडवर्ड वटलर लिटन ने अपने एक मित्र को कहा था-लोग आश्चर्य करते हैं कि मैं राजनीति तथा पार्लियामेंट के कार्यक्रमों में व्यस्त रहते हुए भी इतना साहित्यिक कार्य कैसे कर लेता हूँ ? 60 ग्रंथों की रचना मैंने कैसे कर ली ? पर इसमें आश्चर्य की बात नहीं। यह नियंत्रित दिनचर्या का चमत्कार है। मैंने प्रतिदिन तीन घंटे का समय पढ़ने और लिखने के लिये नियत किया हुआ है। इतना समय मैं नित्य ही किसी न किसी प्रकार अपने साहित्यिक कार्यो के लिए निकाल लेता हूँ। बस एक थोड़े से नियमित समय ने ही मुझे हजारों पुस्तकें पढ़ डालने और साठ ग्रंथों के प्रणयन का अवसर ला दिया। घर- गृहस्थी के अनेक झंझटों और बाल -बच्चों की साज -सँभाल से दिनभर लगी रहने वाली महिला हैरियट वीचर स्टो ने गुलाम -प्रथा के विरुद्ध आग उगलने वाली वह पुस्तक ‘टॉम काका की कुटिया’ लिखकर तैयार कर दी, जिसकी प्रशंसा आज भी बेजोड़ रचना के रुप में की जाती है।

चाय बनाने के लिए पानी उबालने में जितना समय लगता है, उसमें व्यर्थ बैठे रहने की बजाय लांगफैले ने ‘इनफरल’ नामक ग्रंथ का अनुवाद करना शुरू किया और नित्य इतने छोटे समय का उपयोग इस कार्य के लिए नित्य करते रहने से उसने कुछ ही दिन में वह अनुवाद पूरा कर लिया।

इस प्रकार अगणित उदापरण हमें अपने चारों ओर बिखरे हुए मिल सकते हैं। हर उन्नतिशील और बुद्धिमान मनुष्य की मुलभूत विशेषताओ में एक विशेषता अवश्य मिलेगी-समय का सदुपयोग। जिसने इस तथ्य को समझा और कार्य रूप में उतारा उसने ही यहाँ आकर कुछ प्राप्त किया है, अन्यथा तुच्छ कार्यों मेम आलस्य और उपेक्षा के साथ दिन काटने वाले लोग किसी प्रकार साँसे तो पूरी कर लेते हैं, पर उस लाभ से वंचित ही रह जाते है, जो मानव जीवन जैसी बहुमुल्य वस्तु प्राप्त होने पर उपलब्द होनी चाहिए या हो सकती थी।

समय का मूल्य


जीवन का महल समय की -घंटे -मिनटों की ईंटों से चिना गया है। यदि हमें जीवन से प्रेम है तो यही उचित है कि समय को व्यर्थ नष्ट न करें। मरते समय एक विचारशील व्यक्ति ने अपने जीवन के व्यर्थ ही चले जाने पर अफसोस प्रकट करते हुए कहा था-मैंने समय को नष्ट किया,अब समय मुझे नष्ट कर रहा है।’’


खोई दौलत फिर कमाई जा सकती है। भूली हुई विद्या फिर याद की जा सकती है। खोया स्वास्थ्य चिकित्सा द्वारा लौटाया जा सकता है पर खोया हुआ समय किसी प्रकार नहीं लौट सकता, उसके लिए केवल पश्चाताप ही शेष रह जाता है। जिस प्रकार धन के बदले में अभिष्ठित वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं, उसी प्रकार समय के बदले में भी विद्या, बुद्धि, लक्ष्मी कीर्ति आरोग्य, सुख -शांति, मुक्ति आदि जो भी वस्तु रुचिकर हो खरीदी जा सकती है। ईश्वर ने समय रुपी प्रचुर धन देकर मनुष्य को पृथ्वी पर भेजा है और निर्देश दिया है कि इसके बदले में संसार की जो वस्तु रुचिकर समझे खरीद ले।


किंतु कितने व्यक्ति हैं जो समय का मूल्य समझते और उसका सदुपयोग करते हैं ? अधिकांश लोग आलस्य और प्रमाद में पड़े हुए जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बर्बाद करते रहे हैं। एक-एक दिन करके सारी आयु व्यतीत हो जाती है और अंतिम समय वे देखते हैं कि उन्होंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जिंदगी के दिन यों ही बिता दिये। इसके विपरीत जो जानते हैं कि समय का नाम ही जीवन है वे एक -एक क्षण कीमती मोती की तरह खर्च करते हैं और उसके बदले में बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। हर बुद्धिमान व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा परिचय यही दिया है कि उसने जीवन के क्षणों को व्यर्थ बर्बाद नहीं होने दिया। अपनी समझ के अनुसार जो अच्छे से अच्छा उपयोग हो सकता था, उसी में उसने समय को लगाया। उसका यही कार्यक्रम, अंततः उसे इस स्थिति तक पहुँचा सका, जिस पर उसकी आत्मा, संतोष का अनुभव करे।

समस्या

विद्वानो एवं महापुरुषों ने समय के एक-एक क्षण के सदुपयोग का उपदेश 
सदैव दिया हैं, क्यों ?

समाधान
समय संसार की सबसे मूल्यवान संपदा हैं। विद्वानों एवं महापुरुषों ने समय को सारी विभूतियों का कारणभूत हेतु माना हैं। जीवन का हर क्षण एक उज्ज्वल भविष्य की संभावना लेकर आता हैं। हर घड़ी एक महान् मोड़ का समय हो सकती हैं। मनुष्य यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि जिस समय, क्षण और जिस पल को यों ही व्यर्थ में खो रहा हैं, वह ही क्षण, वह ही वक्त, उसके भागयोदय का वक्त नहीं हैं। वह ही हमारे लिए अपनी झोली में कोई सुन्दर सौभाग्य की सफलता लाया हो। सबके जीवन में एक परिवर्तनकारी वक्त आया करता हैं, किन्तु मनुष्य उसके आगमन से अनभिज्ञ रहा करता हैं, इसलिए हर बुद्धिमान मनुष्य हर क्षण को, बहुमूल्य समझकर व्यर्थ नहीं जाने देता। कोई भी क्षण व्यर्थ न जाने देने से निश्यच ही वह क्षण हाथ से छूटकर नहीं जा सकता जो जीवन में वांछित परिवर्तन का सन्देशवाहक होगा। सिद्धि की अनििश्वत घड़ी से अनभिज्ञ साधक जिस प्रकार हर समय लौ लगाए रहने से इसको पकड़ लेता हैं, ठीक उसकी प्रकार हर क्षण को सौभाग्य के द्वार खोल देने वाला समझकर महत्वाकांक्षी कर्मवीर अपने जीवन के एक छोटे से क्षण की उपेक्षा नहीं करता और नििश्चत ही सौभाग्य का अधिकारी बनता हैं। हर मनुष्य को समय के छोटे से छोटे क्षण का मूल्य और महत्व समझना चाहिए। जीवन का समय सीमित हैं और काम बहुत हैं। अपने से लेकर परिवार, समाज एवं राष्ट्र के दायित्वपूर्ण कर्तव्यो के साथ मुक्ति की साधना तक कामों की एक लंबी श्रृंखला चली गई हैं कर्तव्यों की इस अनिवार्य परंपरा को पूरा किए बिना मनुष्य का कल्याण नहीं। इतने विशाल कर्तव्य क्रम को मनुष्य तब ही पूरा कर सकता हैं, जब जीवन के एक-एक क्षण, एक-एक पल और एक-एक निमेश को सावधानी के साथ उपयोगी एवं उपयुक्त दिशा में प्रयुक्त करे। जीवन में उन्नति करने और सफलता पाने वाले व्यक्तियों की जीवनगाथा का निरीक्षण करने पर निश्यच ही उनके इन गुणों में समय के पालन एवं सदुपयोग को प्रमुख स्थान मिलेगा जो जीवन की उन्नति के लिए अपेक्षित होते हैं।
(समय का सदुपयोग, प्रष्ठ-21,22) 

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