शनिवार, 13 सितंबर 2008

प्रज्ञावतार की पुण्यवेला

अन्धकार जब गहराता चला जाए, तो इसकी सघनतम स्थिति के अतिसमीप ही प्रभातकाल की ब्रह्मवेला भी जुड़ी रहती हैं। गर्मी की अतिशय तपन बढ़ चलने पर वर्षा की सम्भावना का अनुमान लगाया जा सकता हैं और सार्थक भी होता हैं। चारों ओर झुलस गयी धरती हरियाली के कवच से भर जाती हैं, मानो एक अप्रत्याशित चमत्कार-सा हुआ हो। दीपक जब बुझने को होता हैं, तो उसकी लौ जोर-जोर से चमकती हैं, लपलपाने लगती हैं। मरण की वेला अतिनिकट होने पर भी रोगी में हलकी-सी चेतना अवश्य लौट आती हैं और वह असामान्य रुप से लम्बी-लम्बी सॉंसे लेने लगता हैं। सभी जानते हैं कि मृत्यु की वेला समीप आ गयी। मरण के पूर्व कुछ ही पहले चींटी के पर निकलने लगते हैं।

उपर्युक्त उदाहरण आज की युगसंधि की वेला एवं प्रज्ञावतार के आगमन के पुण्य-प्रयोजन की व्याख्या हेतु दिए गए हैं। इन दिनो असुरता जीवन-मरण का संघर्ष कर रही हैं। उसे समाप्त होना ही हैं, मात्र उसका अंतिम चरण '' हताशा की स्थिति में एक उग्र रुप और '' - इस परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। अनीति की थोड़ी मात्रा नीतिवानो के सामने चुनौति बनकर पहुंचती और उन्हे अनौचित्य से लड़ पड़ने की उत्तेजना एवं पौरुष प्रदान करती है। जन-जन को दुष्टता का पराभव देखने का अवसर मिलता है। जागरुकता, आदर्शवादिता और साहसिकता का उभार होता ही तब हैं जब अनय के असुर की दुरभिसंधिया देवत्व में आक्रोश का आवेश भरती हैं। इस दृष्टि से अनय का अस्तित्व दुखदायी होते हुए भी अन्तत: उत्कृष्टता के प्रखर बने रहने की सम्भावनाएं प्रशस्त बनाए रखता है।

किन्तु यदा-कदा परिस्थितियॉं ऐसी भी आती हैं, जब संत, सुधारक और शहीद अपने प्रराक्रम प्रभाव का परिमाण भारी देखते हैं एवं विपन्नता से लड़ते-लड़ते भी सत्परिणाम की संभावना को धुमिल देखते हैं। ऐसे अवसरों पर अवतार का पराक्रम उभरता हैं और ऐसी परिस्थितियॉं विनिर्मित करता हैं, जिससे पासा पलटने, परिस्थिति उलटने का असंभाव्य भी संभव हो सके। विपित्त की विषम वेला में सदा यही होता रहा हैं। भविष्य में भी यही क्रम चलेगा। वर्तमान में इसके महातथ्य का प्रत्यक्ष स्पष्टीकरण सामने हैं। युगपरिवर्तन की इस पुण्यवेला में प्रज्ञावतार की प्रखर भूमिका संपादित होते हुए ज्ञानवानों की पैनी दृष्टि सरलतापूर्वक देख सकती है।

अखण्ड ज्योति अगस्त-1969

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