महात्मा तिरूवल्लुवर जुलाहे थे। बड़े होकर वे कपड़े बुनते और जो कुछ मिलता उससे ही अपनी जीविका चलाते। एक दिन संध्या के समय कोई युवक उनके पास आया और बुनी हुई साड़ी का दाम पूछने लगा। इस साड़ी को बुनने में दिन भर लग गया था। संत ने दाम बताए-‘दो रूपये’।
चर्र से दो टुकड़े कर दिए बीच में से उस युवक ने और फिर पूछा-अब इन टुकड़ों के अलग-अलग क्या दाम हैं ? संत ने कहा-‘‘एक-एक रूपया।’’ फिर उसने उन टुकड़ों के भी टुकड़े कर दिए और बोला-‘‘अब’’ तो संत ने उसी गंभीरता से कहा-‘‘आठ आने।’’ इस प्रकार वह युवक टुकड़े-पर-टुकड़े करता गया और संत धैर्यपूर्वक उसके दाम बताते रहे।
युवक शायद उनके अक्रोध तप को भंग करने ही आया था, परंतु संत हार ही न रहे थे। युवक ने अब अंतिम वार किया। उसने तार-तार हुई साड़ी को गेंद की तरह लपेटा और कहा-‘‘अब इसमें रह ही क्या गया हैं, जिसके दाम दिए जाएँ ? यह लो तुम्हारी साड़ी के दो रूपये।’’
तिरूवल्लुवर ने कहा-‘‘बेटा ! जब तुमने साड़ी खरीदी ही नही तो फिर मैं उसका मोल कैसे लूँ ?’’ अब भी इतना धीर-गम्भीर उत्तर सुनकर उद्दंड युवक पश्चाताप से विदग्ध होकर नतमस्तक हो उठा।’’
व्यक्ति दंड द्वारा उतना नहीं सीखता, जितना प्रेम और क्षमा द्वारा।
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