सोमवार, 3 जनवरी 2011

वरदान

घड़ा जब तक घड़ा था, उसे अपने स्वास्थ्य और सौन्दर्य पर बड़ा अभिमान था, किंतु एक दीवार से चोट लगी और उसका सारा दर्प चूर-चूर हो गया। घड़ा टुकड़े-टुकड़े होकर जमीन पर बिखर गया।

अपनी इस स्थिति के लिए वह विधाता को कोसने लगा-‘‘तू कितना निष्ठुर हैं, तुझसे मेरी प्रसन्नता भी न देखी गई। तू सदैव हॅंसते-खेलते चेहरों को यों ही मिट्टी में मिलाया करता हैं।’’ धरती ने यह आवाज सुनी, फूटे घड़े को शान्त करती हुई बोली-‘‘वत्स ! ऐसा न कहो, तुम्हें पता नहीं, टुकड़े-टुकड़े होकर किस अनंतता में लीन हो जाने का वरदान पा रहे हो।’’

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