रविवार, 11 अक्तूबर 2009

हम उपासक हैं, लेकिन किस भगवान के ?

इस संसार में समस्त दुःख पापों के ही परिणाम हैं । मनुष्य अपने किए पापों का दण्ड भुगतता है या फिर दूसरों के पापों की लपेट में आ जाता है । दोनों प्रकार के दुःखों का कारण पाप ही होते हैं । यदि पापों को मिटाया जा सके, तो समस्त दुःख दूर हो सकते हैं । यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति के दुःखों में निश्चय ही कमी हो सकती है । पाप व्यक्ति के कुविचारों और कुकर्मों का परिणाम होते हैं । कुविचारों और कुकर्मों पर नियंत्रण धर्म-बुद्धि के विकसित होने से ही संभव होता है और यह धर्म-बुद्धि परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास रखने से उत्पन्न होती है ।

ईश्वर का अविश्वास ही पापों की जड़ है । इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है । आत्म-नियंत्रण के लिए ईश्वर-विश्वास की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है । व्यक्तिगत सदाचार और सामूहिक कर्तव्य परायणता के पालन के लिए ईश्वरीय विश्वास के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता । इसलिए मनीषियों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यक कर्तव्यों में ईश्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है ।

खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है । भौतिकवादी विचारधाराओं ने यह प्रतिपादित किया है कि ईश्वर न तो आँखों से दिखाई पड़ता है और न प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है, इसलिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं । अति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते हैं । न तो वे कर्म-आस्था पर विश्वास करते हैं और न उपासना की कोई आवश्यकता अनुभव करते हैं ।

दूसरे प्रकार के नास्तिक इनसे भी गये-बीते हैं । वे अपने को आस्तिक कहते और किसी ईश्वर को मानते भी हैं, पर उनका यह कल्पित ईश्वर वास्तविक ईश्वर से सर्वथा भिन्न होता है । वे समझते हैं कि ईश्वर तो केवल पूजा-स्तुति ही चाहता है । इतने से ही वह प्रसन्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता । लोग सोचते हैं कि पूजा करने वालों के समस्त पाप किसी सामान्य धार्मिक कर्मकाण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं । यह लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु-ब्राह्मण परमात्मा के अधिक निकट हैं, इसलिए यदि उन्हें दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए, तो अपनी तगड़ी सिफारिश परमात्मा के यहाँ पहुँच जाती है । फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दंड से बचने की सुविधा हो सकती है । यह प्रच्छन्न नास्तिकता दिखाई तो ईश्वर-विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है । जब पाप-फल से बच सकना इतना सरल मान लिया गया, तो दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले आकर्षणों को छोड़ना कौन पसंद करेगा ।

ऐसी अनेक कथा-कहानियाँ गढ़ी गईं, जिनमें जीवन भर निकृष्ट से निकृष्ट कर्म करते रहने वाले व्यक्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से 'नारायण' का नाम लेने से मुक्त हो गये । इन कथाओं से सत्कर्मों की व्यर्थता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगता है कि जीवन-शोधन के लिए श्रम और त्याग करने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ कर लेना ही अधिक सुविधाजनक है । ऐसी शिक्षा देने वाला अध्यात्म वस्तुतः अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है । आस्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सदाचारी कर्तव्य परायण बनाना है । यदि इस बात को भुलाकर लोग देवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान्न की रिश्वत देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें, तो यह माना जाएगा कि उन्होंने ईश्वर को भी रिश्वत लेकर उल्टा-सीधा काम करने वाला मान लिया है । फिर तप, त्याग, संयम, धर्म, कर्तव्य आदि के कष्टसाध्य मार्ग की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी? ''जो कुछ होता है ईश्वर की इच्छा से ही होता है ।'' ऐसा मानने वाले आलसी और अकर्मण्य बनकर अपनी हीन स्थिति का दोष ईश्वर को लगाते रहते हैं और प्रगति के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं कि जब कभी ईश्वर की इच्छा हो जाएगी, तभी अनायास सब कुछ हो जाएगा । ऐसे लोग अनीति और अत्याचारों को भी ईश्वरेच्छा मानकर चुपचाप सहते रहते हैं ।

आस्तिकता का असली स्वरूप भुला कर जो अविवेकपूर्ण धारणा हमने अपनाई, उसके कारण हम वस्तुतः ईश्वर से अधिकाधिक दूर होते गये । आस्तिकता के नाम पर हमने दिखावटी पूजा-पाठ का जो भाव अपनाया, उससे हमने पाया कुछ नहीं, केवल खोया ही खोया । युग निर्माण योजना के अन्तर्गत जिस आस्तिकता का प्रसार किया जा रहा है, उसमें जप, तप, हवन, पूजन, भजन, ध्यान, कथा, कीर्तन, तीर्थ, पाठ, व्रत, अनुष्ठान आदि के लिए परिपूर्ण स्थान है, पर साथ ही समस्त शक्ति लगा कर हर आस्तिक के मन में यह संस्कार जमाये जा रहे हैं कि ईश्वर को निष्पक्ष, न्यायकारी और घट-घट वासी समझते हुए कुविचारों और दुष्कर्मों से डरें और उनसे बचने का प्रयत्न करें । प्रत्येक प्राणी में ईश्वर को समाया हुआ समझकर उसके साथ सज्जनतापूर्ण सद्व्यवहार किया कर्त्तव्यपालन की ईश्वर की प्रसन्नता का सबसे बड़ा उपहार मानें और प्रभु की इस सुरम्य वाटिका-पृथ्वी में अधिकाधिक सुख-शान्ति विकसित करने के लिए एक ईमानदार माली की तरह सचेष्ट बने रहें । अपना अन्तःकरण इतना निर्मल और पवित्र बनाया जाए कि उसमें ईश्वर का प्रकाश स्वयमेव झिलमिलाने लगे । प्रार्थना केवल सद्बुद्धि, सद्गुण, सद्भावना, सहनशीलता, पुरुषार्थ, धैर्य, साहस और सहिष्णुता के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने की ही की जाए । परिस्थितियों को सुलझाने और अभावों की पूर्ति के लिए जो साधन हमें मिले हुए हैं, उन्हें ही प्रयोग में लाया जाए और संघर्ष का जीवन हँसते-खेलते बिताते हुए मन को संतुलित रखा जाए । ये ही सब आस्तिकता के सच्चे लक्षण हैं । युग निर्माण योजना का प्रयत्न यह है कि इन लक्षणों से युक्त भक्ति और पूजा की भावना को जन-मानस में स्थान मिले और सच्ची आस्तिकता को अपनाने के लिए मानव मात्र का अन्तःकरण उत्साहित होने लगे ।

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