रविवार, 11 अक्तूबर 2009

बच्चे आपके सच्चे मित्र


सच्चे, सरल और निष्कपट मित्र की तलाश संसार में किसे न होगी ! ऐसा मित्र जिससे अपनी प्रत्येक गुप्त से गुप्त बात प्रकट कर सकें, तो भी ऐसी आश़ंका न रहे कि वह बात कहीं अन्यत्र फैल जायेगी । जो इतना सरल हो कि अपनी प्रत्येक त्रुटि को उदारतापूर्वक क्षमा कर सके । जो हर कार्य में सच्चा सहयोगी सिद्ध हो सके । अभिन्न हृदय, अभिन्न आत्मा, न कोई छल, न कपट; ऐसा मित्र मिल जाय तो पूर्वजन्म का कोई पुण्य, कोई सुकृत ही समझना चाहिए । पर ऐसी मित्रता इस जगत में अपवाद ही हो सकती है । प्रायः मित्रता किसी लाभ या स्वार्थ की दृष्टि से कायम होती है और जब उन परिस्थितियों में ढीलापन आने लगता है, तो आत्मीयता के बंधन भी समाप्त होने लगते हैं । 

हमारी दृष्टि में अपने बच्चों की मित्रता अधिक निश्चिंत और उपयोगी हो सकती है । मित्र में जो गुण होने चाहिए, वे बच्चों में मौलिक रूप से देखे जायें, तो वे सबसे प्रिय संगी, स्नेही और सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं । विश्व प्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर कहा करते थे-''परमात्मा की पवित्रता और निश्छलता यदि कहीं है, तो उसे मैंने बच्चों में पाया । बालकों को मैं अपने जीवन का प्रेरणास्रोत मानता हूँ ।'' पं. जवाहरलाल जी की बालकों के साथ घनिष्टता विश्व-विख्यात है । उन्होंने एक बार कहा था-''मैं इस संसार में अपने मित्रों के कारण बहुत सुखी हूँ । यह जो भोले-भाले बच्चे हैं, यही हमारे प्रिय सखा हैं ।'' 

बच्चों में असाधारण सूझ-बूझ होती है, उसे यदि ठुकराया न जाय तो वे ऐसी सुघड़ सलाह देते हैं, जैसी कोई मित्र भी नहीं दे सकता । जॉर्ज बर्नाडर्शा के एक नाटक में किसी पात्र के मुँह से ऐसी बात कहलाई गई थी, जो उसे न कहनी चाहिए थी । उसे एक बालक ने ठीक किया था । ''पिताजी, मनुष्य को उद्देश्यहीन उत्सवों में नहीं शामिल होना चाहिए ।'' यह उपदेश बालक नैपोलियन ने अपने पिता को दिया था । सुभाषचन्द्र बोस अपने घर में नजरबन्द थे, तो वहाँ से मौलवी के वेश में निकल जाने की योजना उनकी छोटी भतीजी ने ही बनाई थी । 

मित्रों से एक अपेक्षा यह की जाती है कि वे सुख-दुःख में सच्चे आत्मीय की तरह हमारे साथ रहें । हम नहीं कह सकते कि इस नियम का व्यवहार में कितना पालन होता है, पर बच्चों से अधिक संवेदनशीलता बड़ों में नहीं होती । माता-पिता को दुःखी देखकर बच्चों के चेहरे पहले मुरझा जाते हैं । वे प्रसन्नता के समय घर को उल्लास से भर देते हैं । इन दोनों समय में बच्चों की आत्मीयता प्राप्त कर सच्चे आत्मसन्तोष का अनुभव किया जा सकता है । दुःख के समय बालकों के ममत्व से दुःख कटता है, सुख में उन पर हल्का उत्तरदायित्व छोड़ने से उनका स्वाभिमान, उनकी आत्मीयता की भावना और उदारता की वृत्ति का परिष्कार होता है । इन दोनों अवसरों पर अपनी मानसिक स्थिति को बच्चों के सामने खुली हुई रखनी चाहिए । 

कभी-कभी मित्रों के गुण-सौन्दर्य बहुत प्रभावित करते हैं । किसी में आत्मीयता अधिक होती है, किसी से मनोविनोद होता है, कोई प्राणवान होते हैं, कोई कर्त्तव्यपालन और व्यवहारकुशलता में श्रेष्ठ होते हैं । बच्चों में इस प्रकार के अनेक सद्गुणों और सद्भावों का सम्मिलित एकीकरण देखा जा सकता है, पर उसे कृपया पुत्र होने की अधिकार भावना से न देखकर मैत्रीपूर्ण भावनाओं से देखिए । एक-दूसरे पर समान अधिकार का आश्वासन देकर ही एक-दूसरे के गुणों का लाभ प्राप्त किया जा सकता है । 

सरलता बालकों का स्वाभाविक गुण है । वे प्रतिदिन ऐसे मनमोहक दृश्य उपस्थित करते रहते हैं । कभी बच्चा कपड़ों और देह में मिट्टी लपेटकर आपके समक्ष आ खड़ा होगा, ठीक बाल-शिव की तरह । उसे देखकर आप मुस्कराये बिना नहीं रहेंगे । उसे कपड़े पहनने के लिए कहेंगे तो उल्टी कमीज पहनकर आ जायेगा । आपकी किताबों को सारे कमरे में बिखेर देगा । उन्हें इस तरह खोलेगा, मानो किसी विशेष सन्दर्भ की तलाश हो । 

आपको भी उसकी इन क्रियाओं से मनोविनोद करना चाहिए, पर यदि उसे इन कौतुकों के फलस्वरूप आपकी डॉट-डपट और मार-झिड़क मिली, तो कुछ ही दिनों में उसकी सारी सरलता कठोरता में बदलने लगेगी । यदि आप इन आदतों में से किसी को सुधारना ही चाहते हैं, तो उसका सही नमूना बार-बार उसके आगे प्रदर्शित कीजिए, बच्चा अपने-आप उसका अनुसरण कर लेगा । समझायें भी तो हँसते हुए कुछ कहें, वह भी आत्मीयता के साथ । ''नहीं, मुन्ने ऐसे नहीं, कंघा यों पकड़ना चाहिए और ऐसे बाल ठीक करने चाहिए ।'' इस प्रकार कहते हुए आप कोई बात उसे समझाइये । चिल्लाकर, चौंकाकर कोई बात कहेंगे तो बच्चा डर जायेगा और आपके प्रति उसकी भावनाओं में कठोरता पनपने लगेगी । यह दबाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कुटिल परिणाम उपस्थित करने वाला होता है । 

आपके बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ आप पर हैं, उन को पूरा करने में निःसन्देह कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक आती हैं, पर इससे बालक पर स्वामित्व या अधिकार की भावना प्रकट करना उचित नहीं । आपके घर वह परमात्मा का मेहमान बनकर आता है । आत्मा की दृष्टि से आप में और बच्चे में कोई असमानता नहीं होती । जिम्मेदारियाँ अधिक होने से आप बड़े अवश्य हैं, पर तमाम कत्तर्व्यों का भली-भाँति निर्वाह आप बच्चों के साथ मित्रवत् व्यवहार करके ही पूरा कर सकते हैं । आप उन्हें इस दृष्टि से देखा करें तो निःसन्देह उनका बड़ा भला कर सकते हैं और स्वयं भी आत्म-लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।


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