रविवार, 20 सितंबर 2009

स्वर्ग-नरक

स्वर्ग-नरक की आलंकारिक मान्यताएँ पौराणिक काल की काल्पनिक गल्पकथाएँ भर है। वस्तुत: स्वर्ग आत्मसंतोष को कहते है । स्थायी आनंद भावनाओं का ही होता है। यदि व्यक्ति का द्रष्टिकोण परिष्कृत और क्रियाकलाप आदर्शवादी मान्यताओं के अनुरूप हों तो वह वस्तुत: स्वर्ग में ही जी रहा है। नरक भी कोई लोक नही है। कुसंस्कारी, दुर्गुणी मनुष्य अपने ओछे चिंतन की आग में स्वयं ही हर घड़ी जलते रहते है। चिंता, भय, क्रोध, ईश्र्या, द्वेष शोषण , प्रतिशोध की प्रवृत्ति हर घडी विक्षुब्ध बनाए रहती है। ये नरक की अनुभूतियाँ है। 

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