स्वर्ग-नरक की आलंकारिक मान्यताएँ पौराणिक काल की काल्पनिक गल्पकथाएँ भर है। वस्तुत: स्वर्ग आत्मसंतोष को कहते है । स्थायी आनंद भावनाओं का ही होता है। यदि व्यक्ति का द्रष्टिकोण परिष्कृत और क्रियाकलाप आदर्शवादी मान्यताओं के अनुरूप हों तो वह वस्तुत: स्वर्ग में ही जी रहा है। नरक भी कोई लोक नही है। कुसंस्कारी, दुर्गुणी मनुष्य अपने ओछे चिंतन की आग में स्वयं ही हर घड़ी जलते रहते है। चिंता, भय, क्रोध, ईश्र्या, द्वेष शोषण , प्रतिशोध की प्रवृत्ति हर घडी विक्षुब्ध बनाए रहती है। ये नरक की अनुभूतियाँ है।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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