महारानी लक्ष्मीबाई केवल 24 वर्ष जीवित रहीं,पर इस अवधि में उन्होने ऐसे शौर्यपरक कार्य कर दिखाए, जिनकी याद आज डेढ़ सौ वर्ष बीतने पर भी अगणितों को प्रेरणा देती रहती है । लक्ष्मीबाई झाँसी की रानी के नाम से प्रसिद्ध है । भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम रुपी रणयज्ञ की वे प्रथम व विशिष्ट होता कही जाती है। कहा जाता है-``रहिमन साँचे सुर कौ बैरिहु करें बखान ।´´ -सच्चे शुरवीर का उसके शत्रु भी गुणगान करते है। अँगरेजो को जिस तरह लक्ष्मीबाई ने नाकों चने चबवाए , जिस तरह से वह उनसे लडी , वे भी उनकी तारीफ पर विवश हुए। झाँसी, कालपी, ग्वालियर , इन तीनो क्षेत्रो मे उन्होने वीरतापुर्वक युद्ध किया । अस्त्र-संचालन , घुडसवारी में नाना साहब के साथ हुए प्रशिक्षण ने लक्ष्मीबाई को वीरांगना एवं देशभक्त बना दिया । वे पुणे से विवाहोपंरात झाँसी आ गई । 1851 में उनके एक पुत्र हुआ , जिसकी अकालमृत्यु हो गई । बाद में 1856 में उनने एक बालक को दत्तक पुत्र बना लिया, पर अँगरेजो को को यह रूचा नहीं । देश में विद्रोह का वातावरण बन रहा था। यह संयोग ही था कि कानपुर , मेरठ , झाँसी से यह आगे सारे देश मे फैली । धार्मिक स्वाभाव की विधवा रानी ने एक सेनापति की भूमिका निभाई और संघर्ष करते हुए ग्वालियर के पास शहीद हो गई । धन्य हैं ऐसी वीरांगनाएँ !
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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