आज जिस उपाधि की हम बात करते हैं-भारत की सर्वोच्च उपाधि `भारत रत्न´ , उसका विधान पं0 गोविंन्द वल्लभ पंत (भारत के दूसरे गृहमंत्री ) के समय में चला था। प्रथम व द्वितीय के बाद अगले की बारी आई तो सर्वसम्मति से भाई जी हनुमानप्रसाद पोद्दार का नाम चुना गया । वे गीता प्रेस, गोरखपुर के संस्थापक-गीता आंदोलन के प्रणेता थे । उन तक बात पहुँची । उन्होने पंत जी से कहा-`` हम इस योग्य नही है। देश बड़ा है। कई सुयोग्य व्यक्ति होगें । हमने कुछ किया भी है तो किसी पुरस्कार की आशा से नही किया । आप किसी और को दे दें ।´´ नेहरू जी को पता चला तो उन्होने पंत जी से कहा-``जाओ और मिलो । आदर सत्कार से बात करो । कोई बात हो सकती है। पता लगाओ।´´ पंत जी ने आकर बात की । पुन: भाई जी बोले-``हम स्वयं को इस लायक मानते ही नहीं । हमने भक्तिभाव से परमात्मा की आराधना मानकर ही सब कुछ किया है। ´´ ऐसा ही हुआ । सरकार को इरादा बदलना पड़ा । मिलेंगें ऐसे लोग हमें आज ? आज तो पद के लिए लड़ाई और उपाधि पर संघर्ष चलता है। वस्तुत: भाई जी जिस भाव और भूमिका मे जीते थे, वह लोक की प्रतिष्ठा से परे-और भी ऊपर थी । उन्हें दैवी सत्ताओं का अनुग्रह सहज ही प्राप्त था। फिर लोक क्या प्रभावित करता उन्हें !
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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