रविवार, 16 अक्तूबर 2011

साधक !

साधक ! क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता, जो सिद्धि की बात सोचता हैं ? भगवान के दर्शन से क्या भक्ति भावना में कम रस हैं ? लक्ष्य प्राप्ति से क्या यात्रा मंजिल कम आनन्ददायक हैं ? फल से क्या कर्म का माधुर्य फीका हैं ? मिलन से क्या विरह कम गुदगुदा हैं ? तू इस तथ्य को समझ। भगवान तो भक्ति से ओत-प्रोत ही है। उसे मिलने में देरी ही क्या हैं ? जीव को साधना का आनन्द लूटने का अवसर देने के लिए ही उसने अपने को पर्दे में छिपा लिया हैं और झाँक-झाँक कर देखता रहता हैं कि मेरा भक्त भक्ति के आनन्द में सरोबार हो रहा हैं या नहीं ? जब वह उस रस में निमग्न हो जाता है, तो भगवान भी आकर उसके साथ रास-नृत्य करने लगता हैं। सिद्धि वह हैं जब भक्त कहता हैं, मुझे सिद्धि नहीं भक्ति चाहिये। मुझे मिलन की नहीं विरह की अभिलाशा हैं । मुझे सफलता में नहीं, कर्म में आनन्द हैं। मुझे वस्तु नहीं भाव चाहिये।

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