धर्म का प्रथम आधार है - आस्तिकता, ईश्वर विश्वास । परमात्मा की सर्वव्यापकता, समदर्शिता और न्यायशीलता पर आस्था रखना, आस्तिकता की पृष्ठभूमि है । यह मान्यता मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रख सकने में पूर्णतया समर्थ होती है । सर्वव्यापी ईश्वर की दृष्टि में हमारा गुप्त-प्रकट कोई आचरण अथवा भाव छिप नहीं सकता । समाज की, पुलिस की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, पर घट-घटवासी परमेश्वर से तो कुछ छिपाया नहीं जा सकता ।
सत्कर्मों का या दुष्कर्मों का दण्ड आज नहीं तो कल मिलेगा ही, यह मान्यता वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में नीति और कर्त्तव्य का पालन करते रहने की प्रेरणा देती है । सत्कर्म करने वाले को यदि प्रशंसा, मान्यता या सफलता नहीं मिली है तो ईश्वर भविष्य में देगा ही, यह आस्था उसे निराश नहीं होने देती और असफलताएँ मिलने पर भी वह सदाचरण के पथ पर आरूढ़ बना रहता है । इसी प्रकार कुकर्मी निर्भय नहीं हो पाता ।
आस्तिकता धर्म का इसलिए प्रथम आवश्यक एवं अनिवार्य अंग माना गया है कि उससे हमारा सदाचरण अक्षुण्य बना रह सकता है।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१०)
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