शुक्रवार, 11 मार्च 2011

चरित्र विरासत में नहीं मिलता

काया-संस्थान मनुष्य का स्वनिर्मित नहीं | अन्न भूमि की देन है | पानी बादलों से बरसता है | हवा आकाश में भरी है | पदार्थ प्रकृति ने बनाये हैं | मनुष्य इनका उपयोग भर करता है | 

किन्तु कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें जन्म-मरण की तरह स्वयं ही सहन या वहन करना होता है | 

भोजन स्वयं ही उदरस्थ करना होता है | मल विसर्जन का कष्ट भी स्वयं ही सहन करना पड़ता है | 

व्यक्तित्त्व का निर्माण भी ऐसा ही काम है जिसके लिए निजी तन्मयता एवं तत्त्परता का सघन समावेश करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं | 

व्यक्तित्व न तो उत्तराधिकार में मिलता है और न किसी से वरदान में उपलब्ध होता है | 

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवन देवता की साधना - आराधना (वांग्मय २) - पृष्ठ १.१

Character cannot be inherited, it must be earned 

Our body is not our own creation. The food we eat is a gift from the earth. The Water is a gift from the clouds. The Air is a gift from the atmosphere. Other materials are given by nature.

A person merely can make use of all these gifts. 

But, like one must take birth and die alone, there are some 
duties that one has to perform unaided and alone. 

We are our own witness, in some moments of our lives. 
We must take and digest our own food. We alone have to deal with the waste produced in our bodies. 

An exercise in character building is also similar, one has to be
unconditionally invested in it with full concentration and promptness. It simply cannot be done any other way.

- Pt. Shriram Sharma Acharya
From Vangmay - 2 - Jeevan Devta Ki Sadhna Aradhana Page 1.1

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