विद्वान इब्सन का कथन है - शक्तिशाली मनुष्य वह है, जो अकेला है | कमजोर वह है, जो दूसरों का मुँह ताकता है | अकेले का अर्थ है "आत्म-निर्भर, अपने पैरों पर खड़े होने वाला" |
यहाँ अकेलापन असहयोगी के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है | इब्सन का तात्पर्य यह है कि जो अपनी जिम्मेदारी को समझता है, अपने कर्तव्यों को निबाहता है, उसे प्रगति के लिये आवश्यक आधार अपने भीतर से ही मिल जाता है, बाहर के साधन उसके चुम्बकत्व से खींचकर अनायास ही इकट्ठे हो जाते हैं |
कन्फ्यूसियस ने कहा है महान व्यक्ति अपनी आवश्यक वस्तुओं को भीतर ढूंढ़ते हैं, जबकि कमजोर उन्हें पाने के लिये दूसरों का सहारा तकते हुए भटकते रहते हैं | तत्त्वदर्शी और मनीषी सदा से ही कहते रहे हैं - जो अपनी सहायता आप करता है, उसी कि सहायता करने परमात्मा भी आता है|
जिसने अपने ऊपर से भरोसा खो दिया उसे इश्वर कि ऑंखें भी अविश्वासी ठहरती हैं | परमात्मा कि निकटतम और अधिकतम सत्ता अपने भीतर ही पाई जा सकी है | जो उसे नहीं देखता वह बाहर कहाँ पर ऐसा अवलंबन प्राप्त कर सकेगा जो उसे विपत्ति से बचाने और आगे बढ़ाने में सहायता कर सके ? अपनी क्षमता और सम्भावना पर से विश्वास उठा लेना परमात्मा कि सत्ता और महत्ता को अस्वीकार करना है |
ऐसी अनास्थावादी मनोभूमि जहाँ हो वहाँ हमें घिनौने किस्म कि नास्तिकता कि गंध मिलेगी |
- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
वांग्मय २२ चेतन, अचेतन एवं सुपर चेतन मन - पृष्ठ ३.१
Know thyself
Wise Ibsen says, "The strongest man in the world is he who stands alone. He is weak who expects, waits for others [to help him]" (An Enemy of the People, 1882). Alone here means - self-reliant, one who is able to stand on one's own two feet. In this context, alone does not mean an uncooperative individual. What Ibsen implies here is a person who knows his responsibilities, performs his duties, that person finds the necessary support he needs [for progress] from within. External resources easily come, drawn to him by his magnetism.
Confucius says, "What the superior man seeks is in himself; what the small man seeks is in others". Intellectuals and sages have always taught, God helps them who help themselves. One who has lost faith and confidence in himself, is counted amongst the unfaithful in the eyes of God.
Inside of us lies the most intense and nearest presence of the divine. One who does not experience that presence, that which is inside of him, from where will he be able to find a support [something to hold on to], which will save him and push him forward?
To not believe in ones own capabilities and possibilities is like refusing to accept the authority of God. In places, where such type of disbelief exists, there we can find the vilest form of atheism.
- Pt. Shriram Sharma Acharya
From Vangmay 22, Chetan, Achetan Evum Super Chetan Mann - Page - 3.1
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