शुक्रवार, 11 मार्च 2011

धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं |

धर्म के प्रति एक भ्रान्ति इसके अंग्रेजी के अनुवाद ने उत्त्पन्न कर दी, अंग्रेजी में धर्म को 'रिलीजन' कहा गया, वास्तव में रिलीजन शब्द से जो ध्वनि निकलती है उससे संकीर्णता का आभास होता है |

'धर्म' जब से 'रिलीजन' माना जाने लगा तो इसका अर्थ यही लगाया जाने लगा कि यह एक विशेष प्रकार की पूजा-आराधना पद्धति में आस्था-विश्वास रखने वाला तथा एक प्रकार के मार्ग पर यंत्रवत चलने वाला तथा संप्रदाय विशेष है |

रिलीजन शब्द से एक ऐसे संकुचित व अपूर्ण भाव का बोध होता है की उसमें धर्म तत्त्व समाहित नहीं होता |

धर्म का अनिवार्य तत्त्व उसकी उदारता, महानता, सार्वभौम सत्ता में निहित है जिसका लक्ष्य ही " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया " है जबकि रिलीजन में इस तरह के भाव प्रकट नहीं होते |

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 
धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (५३) - १.४ 

Dharma is not 'Religion'
A misconception was formed about Dharma when the English word 'Religion' was chosen to represent its meaning. The word 'religion' gives off a feeling of insular traditionalism.

Mistaking Dharma to be merely religion has led to the misunderstanding that Dharma is just a community of people who have faith in a specific set of prayer rituals that they mechanically follow. This specificity became the essence of Dharma.

The word religion emanates a sense of constriction and incompleteness, too restrictive to capture the essence of Dharma. 

Generosity, greatness, universality and catholicity are the essential elements of Dharma, as expressed aptly by Dharma's goal of "May all be content, may all be free from all limitations". The word religion does not evoke similar sentiments.

- Pt. Shriram Sharma Acharya
From the Vangmay 53 "Dharma tattva ka darshan aur marm" page - 1.4

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
धर्म संकट- जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म, इत्यादि ।
धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक ।
धर्म व उपासना है तो ईश्वर (शिव) है, ईश्वर (शिव) है तो धर्म व उपासना है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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