संसार में हर दुर्जन को सज्जन बनाने की, हर बुराई के भलाई में बदल जाने की आशा करना वैसी ही आशा करना है जैसी सब रास्तों पर से काँटे-कंकड़ हट जाने की | अपनी प्रसन्नता और सन्तुष्टि का, यदि हमने इसी आशा को आधार बनाया हो, तो निराशा ही हाथ लगेगी |
हाँ, यदि हम अपने स्वभाव एवं दृष्टिकोण को बदल लें तो यह कार्य जूता पहनने के समान सरल होगा और इस माध्यम से हम अपनी प्रत्येक परेशानी को बहुत अंशो में हल कर सकेंगे |
अपने स्वभाव और दृष्टिकोण में परिवर्तन कर सकना कुछ समय साध्य और निष्ठा साध्य अवश्य है, पर असम्भव तो किसी प्रकार नहीं है | मनुष्य चाहे तो विवेक के आधार पर अपने मन को समझा सकता है, विचारों को बदल सकता है और दृष्टिकोण में परिवर्तन कर सकता है |
इतिहास के पृष्ठ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनसे प्रकट है की आरम्भ से बहुत हलके और ओछे दृष्टिकोण के आदमी अपने भीतर परिवर्तन करके संसार के श्रेष्ठ महापुरुष बने हैं |
- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
वांग्मय - ३१ - संस्कृति - संजीवनी श्रीमद् भागवत एवं गीता - १.१२७
Reform your perspective
Hoping that every wicked person in this world will become chaste, every evil will completely change into virtue is, holding on to a false hope. This is similar to expect all roads to be completely devoid of thorns and stones, be entirely obstacle free.
If we make this [false] hope the sole support of our happiness and contentment, then we are all set to be disappointed. But, yes, if we reform our perspective and temperament, this task [being optimistic, hopeful] will be as easy as tying ones shoes. In this way [by reforming our prespective] we can resolve all our problems to a great degree.
Yes, it’s true that reforming our perspective, changing our disposition; is quite time consuming and does require our uninterrupted devotion, but it is in no way impossible. A person if they desire to do so, can with the power of discrimination, discernment; pacify the mind, change the thoughts and reform one's perspective.
Pages of history are full with examples of those, who initially had a lower and shallow outlook, but because of a reform within, became great.
- Pt. Shriram Sharma Acharya
From Vangmay 31 - Sanskriti Sanjeevani Shrimad Bhagvat evum Geeta - page 1.127
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