खुदीराम को फाँसी हो गई। थोड़ी आयु में, जो थोड़ा-सा समय था, वह भी संघर्ष में गुजरा कि देश, धर्म और समाज का पुनरुद्धार हो तो वे अंतिम समय में अपने अभीष्ट से कैसे हट जाते। फाँसी के समय वे वैसी ही सजावट के साथ गए, जैसा दुल्हा बरात में सजा होता है। दिन भर उनकी कोठरी राष्ट्रीय गीतों से गूजँती रही , पर वे सदैव गहरी नींद में सोए। जेल अवधि में इनका वजन भी आश्चर्यजनक रुप से बढ गया। नित्य वे दंड-बैठक भी लगाते। जिस दिन उन्हें फाँसी होनी थी , प्रातः काल जल्दी उठे। उपासना की, व्यायाम किया। शरीर सँवारा, जैसे वरयात्रा में जाना हो। हँसते हुए गए।
वंदे मातरम् का जयघोष करते हुए, फाँसी के तख्ते पर झुल गए।
धन्य है यह भूमि, जिसने ऐसे शहीदों को जन्म दिया।
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