मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

करुणा से खिलता है प्रेम

एक फूल को मे प्रेम करता हूँ, इतना प्रेम करता हूँ की मुझे डर लगता है कि कही सूरज की रोशनी मे कुम्हला न जाए, मुझे डर लगता है की कही जोर की हवा आए तो इसकी पंखुडिया गिर न जाए | मुझे डर लगता है की कोई जानवर आकर इसे चर न जाए| मुझे डर लगता है की पडोसी के बच्चे इसको उखाड़ न ले, अतः मे फूलो के पोधे को मय गमले के तिजोरी मे बंद करके ताला लगा देता हूँ | प्रेम तो मेरा बहुत है, लेकिन करुणा मेरे पास नही हैं |

मैंने पोधे को बचाने के सब प्रयास किए| धूप से बचा लिया, हवा से, जानवरों से| मजबूत तिजोरी खरीदी, ताला लगाकर पोधे को बंद कर दिया, लेकिन अब यह पोधा मर जायगा| मेरा प्रेम इसे बचा नही सकेगा | हो सकता था बाहर हवाए थोड़ी देर लगती और हो सकता था, इतनी जल्दी न भी आते तथा सूरज की किरणे फूल को इतनी जल्दी मुरझा न देती, लेकिन तिजोरी मे बंद पोधा जल्दी ही मर जाएगा | मेरा प्रेम तो पूरा था,लेकिन करुणा जरा भी न थी |

जगत मे प्रेम भी रहा है , दया भी रही है, लेकिन करुणा नही | करुणा का अनुभव ही नही रहा है| करुणा का अनुभव आए तो हम जीवन को बदलेंगे और करुणा से अगर दया निकले, तो वह दया नकारात्मक न रह जायेगी | वह सिर्फ़ इतना न कहेगी की दुःख मत दो, वह यह भी कहेगी कि दुःख मिटाओ भी, दुःख से बचाओ भी, दुःख से मुक्त भी करो,सुख को भी लाओ | करुणा से प्रेम निकले, तो प्रेम मुक्तिदायी हो जाएगा, बंधनकारी नही रह जाएगा |

सदगुरु का प्रेम ऐसा ही है | इन वासंती क्षणों मे करुना की महक बह रही है | यह महक है सदगुरु की करुणा की | शिष्यवत्सल गुरुवर का प्रेम करुणा से आपूरित है | वह हमारी सामान्य मानवीय दोष-दुर्बलताओ से मुक्त है | प्रेम की सम्पूर्ण उर्वरता इसमे मोजूद है| इसमे संघर्ष है तो सृजन भी है | प्रगति व विकास के बहुमुखी छोर इसमे है |व्यक्तित्व के बहुआयामी विकास की चमक इसमे है | करुणा से आपूरित गुरुप्रेम वसंतपर्व के इन पावन क्षणों मे हम सबको सहज याद आता है एवम् गुरुस्मरण से सहज उपलब्ध भी है |

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