मानव मौलिक रूप से स्वतंत्र है | प्रकृति ने तो उसे मात्र सम्भावनाये दी है | उसका स्वरूप निर्णीत नही है | वह स्वयं का स्वयं ही सृजन करता है | उसकी श्रेष्टता अथवा निकृष्टता स्वयं उसी के हाथो मे है | मानव की यह मौलिक स्वतंत्रता गरिमामय एवम महिमापूर्ण है, किंतु वह चाहे तो इसे दुर्भाग्य भी बना सकता है और दुःख की बात यही है कि ज्यादातर लोगो के लिए यह मौलिक स्वतंत्रता दुर्भाग्य ही सिद्ध होती है | क्योंकि सृजन की क्षमता मे विनाश की क्षमता और स्वतंत्रता भी तो छिपी है | ज्यादातर लोगइसी दूसरे विकल्प का ही उपयोग कर बैठते है |
निर्माण से विनाश हमेशा ही आसान होता है | भला स्वयं को मिटाने से आसन औरक्या हो सकता है ? स्व-विनाश के लिए आत्म सृजन न लगना ही काफी है | उसके लिए अलग से और कुछ भी करने की आवश्यकता नही होती | जो जीवन मे ऊपर की और नही उठ रहा है, वह अनजाने और अनचाहे ही पीछे और नीचे गिरता चला जाता है |
एक बार ऐसी ही चर्चा महर्षि रमण की सत्संग सभा मे चली थी | इस सत्संग सभा मे कुछ लोग कह रहे थे की मनुष्य सब प्राणियो मे श्रेष्ट है, किंतु कुछ का विचार था की मनुष्य तो पशुओ से भी गया-गुजरा है | क्योंकि पशुओ का भी संयम और बर्ताव कई बार मनुष्य से अनेको गुना श्रेष्ट होता है | सत्संग सभा मे महर्षि स्वयं भी उपस्थित थे |दोनों पक्ष वालो ने उनसे अपना निर्णायक मत देने को कहा | महर्षि कहने लगे, " देखो,सच यही है की मनुष्य मृण्मय और चिन्मय का जोड़ है | जो देह का और उसकी वासनाका अनुसरण करता है, वह नीचे-से-नीचे अंधेरो मे उतरता जाता है और जो चिन्मय के अनुसन्धान मे रत होता है, वह अंतत सच्चिदानंद को पाता और स्वयं भी वही हो जाता है | " ठीक ही तो है | प्रज्ञा पुराण भी तो यही कहता है |
अखंड ज्योति जुलाई 2001
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