मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

भारतमाता

भारतमाता का आँचल हिमालय के श्वेत हिम शिखरों से लेकर केरल की हरियाली तक फैला हुआ है। कन्याकुमारी के महासागर की तरंगो मे इसकी तिरंगी आभा लहराती है।माता अपने आँचल मे अपनी सभी सौ करोड़ संतानों को समेटे हुऐ है | सभी जातिया,सभी वर्ण, सभी वंश इसी की कोख से उपजे है। माता अपनी छाती चीरकर सभी के लिए पोषण की व्यवस्था जुटाती है। संतानों का सुख ही इस माँ का सुख है, संतानों का दुःख ही इसकी पीड़ा है।

इस प्रेममयी जननी ने अपने पुत्रो के लिए, पुत्रियों के लिए बहुत कुछ सहा है। परायो के आघात ने इसे कष्ट तो दिया, पर इसके धेर्य को डिगा नही पाए।

यह क्षमामयी माता बिलखी तो तब, तड़पी तो तब, जब अपनों ने ही मीरजाफर ,जयचंद बन कर इस पर वार किए। माँ की ममता को छला, इसकी भावनाओ को आहत किया, कोख को लजाया। आज भी जब इसके अपने बच्चे परायो के बहकावे मे आकर अपने को आतंकित करते है, क्रूरता के कुकृत्य करते है तो इस धैयॅमयी का धीरज रो पड़ता है। समझ मे नही आता की यह किससे कहे, कैसे कहे अपनी पीड़ा ! कहाँ बांटे अपना दरद !

हालाँकि भारतमाता के सत्पुत्रो-सत्पुत्रियो की भी कमी नही है। वीर शिवाजी, महाप्रतापी राणा प्रताप, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, इसके यश को दिगंतव्यापी बनाने वाले विवेकानंद, इस पर अपने सुखो को निछावर करने वाले सुभाष-गाँधी, इसके दुखों को मिटाने के लिए सदा-सवर्दा तप मे रत युग ऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा आदि मात्तृ भक्तो ने ही तो इसे गुलामी से मुक्त करा कर गोरवान्वित किया। आज माता ने फ़िर से अपनी संतानों की संवेदना को पुकारा है, जो इसकी कोख का मन रखे, इसके आँचल की अखंडता बनाये रखे।

अखंड ज्योति - अगस्त २००६

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