रविवार, 15 अगस्त 2010

गुरु-शिष्य


चैत्र शुक्ल नवमी, रविवार, संवत् 1530 को जन्मे नारायण बालक को भगवान श्री राम का दास होने के कारण रामदास नाम मिला । बाद मे उनके शिष्यो ने उनकी शक्ति को देख, उन्हें समर्थ की उपाधि दी । देश की दशा को ठीक करना, लोकमत को जगाना और परमात्मा के प्रति विश्वास पैदा करना ही, उनका लक्ष्य होता था।

शिवाजी को उनने अपने कार्य का निमित्त बनाया । वैशाख शुक्ल नवमी, संवत् 1571 को उनने अपने प्रिय शिष्य शिवा को शिष्य बनाया- गुरुमंत्र दिया और प्रसाद रुप में एक नारियल, मुट्ठी भर मिट्टी दो मुट्टी लीद और चार मुट्टी पत्थर दिये, जो क्रमशः दृढ़ता, पार्थिवता, ऐश्वर्य एवं दुर्ग विजय के प्रतीक थे । महाराज शिवाजी राव ने गुरु का पह प्रसाद ग्रहण किया और साधु जीवन बिताने की अनुमति माँगी । 

समर्थ ने उन्हे समझाया - 

‘‘पीड़ितो की रक्षा तथा धर्म का उद्धार तुम्हारा कर्तव्य है। साधु वही है, जो कि अपनी वासना-तृष्णा, संकीर्ण स्वार्थपरता को त्यागकर, निस्वार्थ भाव से देश-घर्म की रक्षा करे।’’ शिवाजी ने अपनी सैन्यशक्ति से हिंदू पद पादशाही के प्रवर्तक बनने, छत्रपति कहलाने का श्रेय प्राप्त किया । हजारो महावीर मठ, जो समर्थ द्वारा स्थापित किए गए, वे प्रेरणा एवं जनसहयोग के स्त्रोत बने । परिणामस्वरुप मुगल साम्रज्य की जड़े खोखली हो गई, वह गिरकर ढेर हो गया । सारा श्रेय गुरु-शिष्य की इस जोड़ी को जाता है ।

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