पौराणिक कथाओं के अनुसार हजारो वर्ष पूर्व एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं की हार हुई और वृत्रासुर ने देवलोक पर अधिकार कर लिया। असुरगण को वरदान था की धातु व लकड़ी का बना कोई भी अस्त्र उसका वध नही कर सकता। ऐसे मे असुरों की पराजय असंभव ही जान पड़ती थी। युग-युगों से सत्य व धर्म की रक्षा करने हेतु, अवतारी शक्तियाँ मनुष्य शरीर मे जन्म लेती रहीं हैं और उसी संकल्प को पूरा करने के हेतु एक दिव्य शक्ति ने ऋषि अथर्वण व चित्ति के यहाँ जन्म लिया और उनका नाम दधीचि रखा गया। सूर्य की ऊर्जा को कौन बांध सकता है। जैसे-जैसे दधीचि बडे़ होते गये, उनकी तपस्या की कीर्ति चारों दिशाओं में फैलने लगी। ऐसे मे, आशीर्वाद एवं दिशादर्शन के उद्देश्य से देवराज इंद्र दधीचि की शरण मे पहुँचे। उसके आगे की कथा मानवता के इतिहास में, त्याग और बलिदान का श्रेष्ठतम उदाहरण है। देवत्व की रक्षा के लिये, महर्षि दधीचि द्वारा अपनी अस्थियों का दान कर दिया। जिनके जोड़ से बना अस्त्र वृत्रासुर की मृत्यु का कारण बना।
आज इस अंधेरे में, जब आस्था और विश्वास के दीये हवा के झोंको से डगमगा जाते हो, महर्षि दधीचि के बलिदान की गाथा, सभी के लिये अटूट ज्योति की किरण के समान है।
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