बुधवार, 26 जनवरी 2011

‘संयम’

सम्राट पुष्यमित्र के अश्वमेध के सफलतापूर्वक संपन्न होने पर अतिथियों की विदाई के समय एक नृत्योत्सव रखा गया। यज्ञ के ब्रह्मा महर्षि पतंजलि भी उस उत्सव में शामिल हुए। महर्षि के शिष्य चैत्र को उस आयोजन में महर्षि की उपस्थिति अखरी। एक दिन जब महर्षि योगदर्शन पढ़ा रहे थे, उसने पूछ ही लिया-‘‘गुरूवर ! क्या नृत्य गीत के रसंरग चित्तवृत्ति के निरोध में सहायक होते हैं ?’’ महर्षि समझ गए। उन्हों कहा-‘‘सौम्य ! आत्मा रसमय हैं। वह रस विकृत न हो और शुद्ध बना रहे, इसी सावधानी का नाम ‘संयम’ हैं। विकार की आशंका से रस का परित्याग नहीं किया जाता। यह तो पलायन हैं रसरहित जीवन बनाकर किया गया संयम का प्रयास ऐसा ही हैं, जैसे जल को तरलता और अग्नि को ऊष्मा से वंचित कर देना। भद्र ! तुम्हारी आशंका का समाधान हुआ ?’’ सिर झुकाकर चैत्र ने कहा-‘‘प्रभु ! समाधान हुआ। अज्ञान के लिए क्षमा प्रार्थी भी हूँ।’’

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