मगध देश के राजा चित्रांगद वनविहार को निकले। एक सुन्दर सरोवर के किनारे महात्मा की कुटीर दिखाई दी। राजा ने कुछ धन महात्मा के लिए भिजवाते हुए कहा कि आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हैं यह। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी। बड़ी से बड़ी राशि भेजी गई, पर सब लौटा दी गई। राजा स्वयं गए और पूछा कि आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नही की ? महात्मा हँसकर बोले- ‘‘मेरी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन हैं।’’ राजा ने देखा कुटीर में एक तूंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र भर था, यहाँ तक कि धन रखने के लिए और कोई आलमारी आदि भी नहीं थीं। राजा ने फिर कहा-‘‘मुझे तो कहीं कुछ दिखाई नहीं देता।’’ महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने उसे पास बुलाकर उसके कान में बोला-‘‘मैं रसायनी विद्या जानता हूँ किसी भी धातु से सोना बना सकता हूँ।’’ अब राजा की नींद उड़ गई। वैभव के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और महात्मा के पास सुबह ही पहुँचकर कहा-‘‘महाराज ! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि में राज्य का कल्याण कर सकूँ।’’ महात्मा ने कहा-‘‘इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर रोज मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूँ उसे ध्यान से सुनना। एक वर्ष बाद तुम्हें सिखा दूँगा।’’ राजा नित्य आने लगा। सत्संग एवं विचारगंगा में स्नान अपना प्रभाव दिखाने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच बदल चुकी थी। महात्मा ने स्नेह से पूछा-‘‘विद्या सीखोगे ?’’ राजा बोले-‘‘प्रभु ! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूँगा।’’ ऐसे होता हैं कायाकल्प।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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