बुधवार, 16 नवंबर 2011

मैं का लोप

मैं को भूल जाना और ‘मैं’ से उपर उठ जाना सबसे बड़ी कला है। उसके अतिक्रमण से ही मनुष्य मनुष्यता को पार कर दिव्यता से सम्बन्धित होता हैं। जो ‘मैं’ से घिरे रहते हैं, वे भगवान को नहीं जान पाते। उस घेरे के अतिरिक्त मनुष्यता और भगवत्ता के बीच ओर कोई बाधा नहीं हैं। च्वांग-त्सु किसी बढ़ई की एक कथा कहता था। वह बढ़ई अलौकिक रूप से कुशल था। उसके द्वारा निर्मित्त वस्तुएं इतनी सुन्दर होती थी कि लोग कहते थे कि जैसे उन्हें किसी मनुष्य में नहीं, वरन देवताओ ने बनाया हो। किसी राजा ने उस बढ़ई से पूछा, ‘ तुम्हारी कला में यह क्या माया हैं ? वह बढ़ई बोला, ‘कोई माया-वाया नहीं हैं, महाराज ! बहुत छोटी-सी बात हैं। वह यही कि जो भी में बनाता हूं, उसे बनाते समय अपने ‘मैं’ को मिटा देता हूं। सबसे पहले में अपनी प्राण-शक्ति के अपव्यय को रोकता हूं और चित को पूर्णतः शान्त बनाता हूं। उस वस्तु से होने वाले मुनाफे, कमाई आदि की बात भूल जाता हूं। फिर उससे मिलने वाले यश का भी ख्याल नहीं रहता। मुझे अपनी काया का भी विस्मरण हो जाता हैं। सभी बाह्म-अंतर विघ्न और विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। फिर जो मैं बनाता हूं, उससे परे और कुछ भी नहीं रहता हैं। ‘मैं’ भी नहीं रहता हूं। और इसीलिए वे कृतियां दिव्य प्रतीत होने लगती है।’

जीवन में दिव्यता को उतारने का रहस्य सूत्र यही हैं। ‘मैं’ को विसर्जित कर दो और चित्त को किसी सृजन में तल्लीन अपनी सृष्टि में ऐसे मिट जाओ और एक हो जाओ जैसा कि परमात्मा उसकी सृष्टि में हो गया हैं।

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