बुधवार, 16 नवंबर 2011

उलझन

एक दिन नदी के किनारे एक फकीर बैठा हुआ था, अपने शिष्यों के साथ। सर्दी थी बहुत और फकीर ठिठुर रहा था। नदी में एक कम्बल बहता चला आ रहा हैं। उसने शिष्यों से कहा, ‘अरे, कम्बल ! आप छलांग लगाकर कम्बल क्यों नहीं लाते ? आप ठंड से परेशान है।’ उस फकीर ने नदी में छलांग लगाई, लेकिन यह क्या ? असल में वह कम्बल नहीं था, वह एक रीछ था, जो सिर छिपाये हुए पानी में बहा जा रहा था। वह कम्बल जैसा मालूम पड़ रहा था। अब जब उसने रीछ को पकड़ लिया, तो उसने पाया कि असल में उसने रीछ को नहीं पकड़ा था बल्कि रीछ ने उसको पकड़ा है अब वह उसके साथ बहने लगा।

फकीर को शिष्यों ने कहा, ‘क्या मामला है अगर कम्बल बहुत वजनी हो और खींच कर न ला सकते हो तो छोड़ दो।’ फकीर ने कहा, ‘अब छोड़ना बहुत मुश्किल हैं, क्योंकि कम्बल ने ही मुझे पकड़ लिया है। मैने उसे नहीं पकड़ा है। मैं तो उसे छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन कम्बल मुझे नहीं छोड़ रहा है।’

इसी तरह तुमने जो उलझने पकड़ी है, वह मुर्दा नहीं हैं उन्हें तुमने खूब जीवन दिया है, खूब सींचा है। यह ध्यान रखना होगा कि वह कम्बल की तरह नहीं है, वे रीछ की तरह हो गई हैं। उनमें तुमने प्राण डाल दिए हैं, अपने ही प्राण डाल दिए हैं। खींच लोगे तो धीरे-धीरे निकल जाओगे, वे निष्प्राण हो जाएंगी, लेकिन एकदम से होगा नहीं। समय लगेगा। और इसलिए जिसमें हिम्मत हो संघर्ष को जारी रखने की, वही उलझनों से मुक्त हो सकता हैं

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