बुधवार, 16 नवंबर 2011

पवित्रता


जब तक हमे अपवित्रता दिखाई पडे, जानना चाहिए कि उसके कुछ न कुछ अवषेश जरुर हमारे भीतर है। वह स्वयं के अपवित्र होने की सूचना से ज्यादा और कुछ नही है।

सुबह की प्रार्थना के स्वर मंदिर मे गूँज रहे थे। आचार्य रामानुज भी प्रभु की प्रार्थना मे तल्लीन से दिखते मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे । और तभी अकस्मात् एक चांडाल स्त्री उनके सम्मुख आ गई। उसे देख उनके पैर ठिठक गए, प्रार्थना की तथाकथित तल्लीनता खंडित हो गई और मुँह से अत्यन्त कठोर शब्द फूट पडे, चांडालिन मार्ग से हट, मेरे मार्ग को अपवित्र न कर। प्रार्थना करती उनकी आँखो मे क्रोध आ गया और प्रभु की स्तुति मे लगे ओठो पर विष। किंतु वह चांडाल स्त्री हटी नही, अपितु हाथ जोडकर पूछने लगी, ’स्वामी, मै किस ओर सरकूं ? प्रभु की पवित्रता चारो ओर है। मै अपवित्र किस ओर जाऊं ? मानो कोई परदा रामानुज की आंखो के सामने से हट गया हो, ऐसे उन्होने उस स्त्री को देखा। उसके थोडे से शब्द उनकी सारी कठोरता ले गए। श्रद्धावान हो उन्होने कहा था, ‘मां, क्षमा करो । भीतर का मैल ही हमे बाहर दिखाई पडता है। जो भीतर की पवित्रता से आंखो को माँज लेता है, उसे चहुँ ओर पावनता ही दिखाई देती है।

प्रभु को देखने का कोई और मार्ग मै नही जानता हूं। एक ही मार्ग है और वह है सब ओर पवित्रता का अनुभव होना। जो सब मे पावन को देखने लगता है, वही और केवल वही प्रभु के द्धार की कुँजी को उपलब्घ कर पाता है।

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