एक राजा के मन में विकल्प उठा कि मैं गुरू बनाऊं। राजा ने कहा-‘गुरू वह होगा, जिसका आश्रम सबसे बड़ा हैं’। घोषणा करवा दी गई- राजा गुरू बनाएगा और उसको गुरू बनाएगा जिसका आश्रम सबसे बड़ा है। होड़ लग गई। राजा का गुरू बनने की लालसा बन गई। सैकड़ों साधु, महात्मा, संन्यासी आ गए। राजा ने कहा- ‘महाराज! कहिए।’
एक बोला, ‘मेरा आश्रम पचास एकड़ में फैला हुआ है।’
दूसरे ने कहा, ‘मेरा आश्रम सौ एकड़ में फैला हुआ है।’
तीसरा बोला, ‘मेरा दो सौ एकड़ में फैला हुआ है।’
चैथा बोला, ‘मेरा आश्रम हजार एकड़ में फैला हुआ है।’
सबने अपना-अपना बखान कर दिया।
एक संन्यासी ऐसे ही बैठा रहा। कुछ नहीं बोला।
राजा ने कहा, ‘महाराज आप भी बोलिए। आपके पास क्या है ?’ वह बोला-‘राजन ! मैं यहां बता नहीं सकता, आप मेरे साथ चले।’
राजा साथ हो गया। संन्यासी राजा को जंगल में गया। एक बड़ा बड़ का पेड़ था। संन्यासी उसके नीचे जाकर बैठ गया और बोला-‘यह मेरा आश्रम है।’
राजा बोला-‘महाराज! कितना बड़ा है ?’
संन्यासी बोला- ‘जितना ऊपर आकाश और जितनी नीचे पृथ्वी-इतना बड़ा आश्रम है, जिसकी सीमा नहीं है।’
राजा चरणों में गिर पड़ा। बोला आप मेरे गुरू हैं। मैं आपका शिष्य हूँ। सब देखते रह गए। गुरू वह बन सकता है जिसके पास कुछ नहीं है। अकिंचन व्यक्ति ही त्रिलोक का अधिपति बन सकता है।
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