अंहकार रहित भक्तिमय कर्म की ही सार्थकता है । हम जो भी कार्य करें चाहे वह पड़ोसी का हो, समाज एवं राष्ट्र का हो; कृषि सम्बन्धी, विद्यालय या ऑफिस सम्बन्धी हो; छोटा या बड़ा हो; उसमें समर्पण भाव होना चाहिए, पूर्ण मनोयोग जुड़ना चाहिए, तभी वह कार्य उत्तम, परिणाम उत्कृष्ट और कर्त्ता श्रेष्ठ कहलाता है ।
(वाङ्गमय-४, पृष्ठ १.१९)
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