संसार में कोई भी वैभव और उल्लास शक्ति के मूल्य पर मिलता है। जिसमें, जितनी क्षमता होती है, वह उतना ही सफल होता है, वैभव उपार्जित कर लेता है।
जीवन में शक्ति के बिना कोई आनंद नहीं उठाया जा सकता। अनायास उपलब्ध भोग भी इसके बिना नहीं भोगे जा सकते। इन्द्रियों में शक्ति रहने तक ही विषय भोगों का सुख प्राप्त किया जा सकता है।
यदि ये किसी प्रकार अशक्त हो जाएं, तो आकर्षक से आकर्षक भोग भी उपेक्षणीय और घृणास्पद लगते हैं। नाड़ी संस्थान की क्षमता क्षीण हो जाए तो शरीर का सामान्य क्रियाकलाप ठीक तरह नहीं चल पाता। मानसिक शक्ति घट जाने पर मनुष्य की गणना विक्षिप्तों में होने लगती है। धन-शक्ति न रहने पर दर-दर का भिखारी बनना पड़ता है। मित्र शक्ति न रहने पर एकाकी जीवन निरीह और निरर्थक लगने लगता है। आत्म-बल न होने पर प्रगति-पथ पर एक कदम भी यात्रा नहीं बढ़ती। जीवनोद्देश्य की पूर्ति आत्म-बल से रहित व्यक्ति के लिए असम्भव है।
मनीषियों ने विभिन्न शक्तियों को देवनामों से सम्बोधित किया है। ये समस्त देव-शक्तियां उस परम शक्ति की ही किरणें हैं। सभी देव शक्तियां उसके ही स्फुर्लिंग हैं, जिसे अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहा जाता है। जैसे जलते हुए अग्निकुंड से चिंगारियां उछलती हैं, उसी प्रकार विश्व की महान शक्ति सरिता गायत्री की लहरें देव शक्तियों के रूप में देखने में आती हैं। सम्पूर्ण देवताओं की सम्मिलित शक्ति को गायत्री कहना उचित होगा। पूर्वजों ने चरित्र को उज्ज्वल तथा विचारों को उत्कृष्ट रखने के अतिरिक्त अपने व्यक्तित्व को महानता के शिखर तक पहुंचाने के लिए उपासना के महात्मक संबल गायत्री महामंत्र को पकड़ा। इस सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे देव पुरूषों में गिने जाने योग्य स्थिति प्राप्त कर सके थे।
संसार में कुछ भी पाने की एकमेव महाशक्ति ने निखिल ब्रह्मांड में अपनी अनंत शक्तियां बिखेरी हैं। उनमें से जिनकी आवश्यकता होती है, उन्हें मनुष्य अपने पुरूषार्थ से प्राप्त कर सकता है। विज्ञान द्वारा मनुष्य ने विघुत, ताप, प्रकाश, चुम्बक, शब्द, अणुशक्ति जैसी प्रकृति की कितनी ही अदृश्य और अविज्ञात शक्तियों को ढूंढा और प्राप्त किया है।
परब्रह्म की अनेक चेतनात्मक शक्तियां भी आत्मिक प्रयासों द्वारा पायी जा सकती हैं। मनुष्य अपने चुम्बकत्व के सहारे वह भौतिक जीवन में किसी को भी प्रभावित और आकर्षित करता है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा विघमान हो, तो फिर और कोई ऐसी कठिनाई शेष नहीं रह जाती, जो नर को नारायण, पुरूष को पुरूषोत्तम बनाने से वंचित रख सके।
श्रम और मनोयोग तो आत्मिक प्रगति में भी उतना ही लगाना पर्याप्त होता है, जितना भौतिक समस्याएं हल करने में आये दिन लगाना पड़ता है। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरूषार्थ और साहस करना पड़ता है, उससे कम में ही उत्कृष्ट आदर्शवादी जीवन का निर्माण-निर्धारण किया जा सकता है। मूल कठिनाई एक ही है- प्रज्ञा प्रखरता की। यदि वह प्राप्त जाए तो जीवन में ऋद्धि-सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली संभावनाओं को प्राप्त कर सकने में कोई कठिनाई शेष नहीं रह जाती।
-गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार
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