शनिवार, 31 जुलाई 2010

लकडहारा और सन्यासी

एक गांव में एक लकडहारा रहा करता था।वह हर रोज जंगल में जाकर लकडी काटता और उसे बाजार में बेच देता। किन्तु कुछ समय से उसकी आमदनी घटती चली जा रही थी क्योंकि स्पर्धा और जंगल कटाई की वजह से उसके धंधे में लगातार कमी आने लगी थी।ऐसी परिस्थिति में उसकी एक संन्यासी से भेंट हुई। लकडहारे ने संन्यासी से विनम्र बिनती की और बोला ''महाराज कृपा करें। मेरी समस्या का कोई उपाय बताइये।''

इसपर उस सन्यासी ने लकडहारे को कहा ''आगे जा।''

उस सन्यासी के आदेश पर या तो कहें, शब्दों पर विश्वास रख आगे की ओर निकल चला। तब कुछ समय पश्चात सुदूर उसे चंदन का वन मिला। वहां की चंदन की लकडी बेच-बेच कर लकडहारा अच्छा-खासा धनी हो गया। ऐसे सुख के दिनों में एक दिन लकडहारे के मन में विचार आया कि ''सन्यासी ने तो मुझे आगे जा कहा था। लेकिन मैं तो मात्र चंदन के वन में ही घिर कर रह गया हूं। मुझे तो और आगे जाना चाहिये।''

यह विचार करते-करते वह और आगे निकल गया तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है! आगे उसे एक सोने की खदान दिखाई दी। सोना पाकर लकडहारा और अधिक धनवान हो गया। उसके कुछ दिन के पश्चात लकडहारा और आगे चल पडा। अब तो हीरे और माणिक-पाचू और मोती उसके कदम चूम रहे थे। उसका जीवन बहुत सुखी और समृध्द हो गया।

किंतु लकडहारा फिर सोचने लगा ''उस सन्यासी को इतना कुछ पता होने के बावजूद वह क्यों भला इन हीरे माणिक का उपभोग नहीं करता।'' इस प्रश्न का समाधानकारक उत्तर लकडहारे को नहीं मिला। तब वह फिर उस सन्यासी के पास गया और जाकर बोला ''महाराज आप ने मुझे आगे जाने को कहा और धनसमृध्दी का पता दिया लेकिन आप भला इन सब सुखकारक समृध्दि का लाभ क्यों नहीं उठाते ?

इसपर संन्यासी ने सहज किन्तु अत्यंत सटीक उत्तर दिया। वह बोले ''भाई तेरा कहना उचित है, लेकिन और आगे जाने से ऐसी बहुत ही खास उपलब्धि हाथ लगती है जिसकी तुलना में ये हीरे और माणिक केवल मिट्टी और कंकर के बराबर महसूस होते हैं। मैं उसी खास चीज की तलाश में प्रवृत्त हूं।''

सन्यासी के इस साधारण मगर गहरे अर्थ वाले कथन से लकडहारे के मन में भी विवेक-विचार जागृत हुआ। उसने सन्यासी को गुरू मानकर उसका शिष्यत्व स्वीकार लिया और वह साधक बन गया।

सबसे मूल्यवान चीज का नाम ही तो है ईश्वरलाभ । कोई भी तलाश ईश्वर के बिना पूर्ण नही होती ।


कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin