शनिवार, 31 जुलाई 2010

निरोग जीवन के महत्वपूर्ण सूत्र

नीरोग जीवन एक ऐसी विभूति है जो हर किसी को अभीष्ट है । कौन नहीं चाहता कि उसे चिकित्सालयों-चिकित्सकों का दरवाजा बार-बार न खटखटाना पड़े, उन्हीं का, ओषधियों का मोहताज होकर न जीना पड़े । पर कितने ऐसे हैं जो सब कुछ जानते हुए भी रोग मुक्त नहीं रह पाते ? यह इस कारण कि आपकी जीवन शैली ही त्रुटि पूर्ण है मनुष्य क्या खाये, कैसे खाये! यह उसी को निर्णय करना है । आहार में क्या हो यह हमारे ऋषिगण निर्धारित कर गए हैं । वे एक ऐसी व्यवस्था बना गए हैं, जिसका अनुपालन करने पर व्यक्ति को कभी कोई रोग सता नहीं सकता । आहार के साथ विहार के संबंध में भी हमारी संस्कृति स्पष्ट चिन्तन देती है, इसके बावजूद भी व्यक्ति का रहन-सहन, गड़बड़ाता चला जा रहा है । परमपूज्य गुरुदेव ने इन सब पर स्पष्ट संकेत करते हुए प्रत्येक के लिए जीवन दर्शक कुछ सूत्र दिए हैं जिनका मनन अनुशीलन करने पर निश्चित ही स्वस्थ, नीरोग, शतायु बना जा सकता है । 

परमपूज्य गुरुदेव ने व्यावहारिक अध्यात्म के ऐसे पहलुओं पर सदा से ही जोर दिया जिनकी सामान्यतया मनुष्य उपेक्षा करता आया है और लोग अध्यात्म को जप-चमत्कार, ऋद्धि-सिद्धियों से जोड़ते हैं किंतु पूज्यवर ने स्पष्ट लिखा है कि जिसने जीवन सही अर्थों में सीख लिया उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । जीवन जीने की कला का पहला ककहरा ही सही आहार है। इस संबंध में अनेकानेक भ्रान्तियाँ है कि क्या खाने योग्य है क्या नहीं ? ऐसी अनेकों भ्रान्तियों यथा नमक जरूरी है, पौष्टिता संवर्धन हेतु वसा प्रधान भोजन होना चाहिए, शाकाहार से नहीं-मांसाहार स्वास्थ्य बनता है- पूज्यवर ने विज्ञान सम्मत तर्क प्रस्तुतः करते हुए नकारा है । एक-एक स्पीष्टरण ऐसा है कि पाठक सोचने पर विवश हो जाता है कि जो तल-भूनकर स्वाद के लिए वह खा रहा है वह खाद्य है या अखाद्यं अक्षुण्ण स्वास्थ्य प्राप्ति का राजमार्ग यही है कि मनुष्य आहार का चयन करें क्योंकि यही उसकी बनावट नियन्ता ने बनायी है तथा उसे और अधिक विकृति न बनाकर अधिकाधिक प्राकृतिक् रूप में लें । 

अनेक व्यक्ति यह जानते नहीं हैं कि उन्हें क्या खाना चाहिए, क्या नहीं ? उनके बच्चों के लिए सही सात्विक संस्कार वर्धक आहार कौन सा है, कौन सा नहीं ? सही, गलत की पहचान कराते हुए पूज्यवर ने स्थान-स्थान पर लिखा है कि एक क्रांति आहार संबंधी होनी चाहिए, पाककला में परिवर्तन कर जीवन्त खाद्यों को निष्प्राण बनाने की प्रक्रिया कैसे उलटी जाय, यह मार्गदर्शन भी इसमें है । राष्ट्र् के खाद्यान्न संकट को देखते हुए सही पोष्टिक आहार क्या हो सकता है यह परिजन इसमें पढ़कर घर-घर में ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं । अंकुरित मूँग-चना-मूँगफली-हरी सब्जियों के सलाद आदि की व्यवस्था कर सस्ते शाकाहारी भोजन व इनके भी व्यंजन कैसे बनाये जायँ इसका सर्वसुलभ मार्गदर्शन इस खण्ड में है । शाकाहार-मांसाहार संबंधी विवाद को एकपक्षीय बताते हुए शाकाहार के पक्ष में इतनी दलीलें दी गयी हैं कि विज्ञान-शास्त्र सभी की दुहाई देनेवाले को भी नतमस्तक हो शाकाहार की शरण लेनी पड़ेगी, ऐसा इसके विवेचन से ज्ञात होता है । 

हमारी जीवन शैली में कुछ कुटेवें ऐसी प्रेवश कर गयी हैं कि वे हमारे 'स्टेटस' का अंग बनकर अब शान का प्रतीक बन गयीं हैं । उनके खिलाफ सरकारी, गैरसरकारी कितने ही स्तर पर प्रयास चलें हो, उनके तुरन्त व बाद में संभावित दुष्परिणामों पर कितना ही क्यों न लिखा गया हो, ये समाज का एक अभश्प्त अंग बन गयीं हैं । इनमें हैं तम्बाकू का सेवन, खैनी, पान मसाले या बीड़ी-सिगरेट के रूप में तथा मद्यपान । दोनों ही घातक व्यसन हैं । दोनों ही रोगों को जन्म देते हैं-काया को व घर को जीर्ण-शीर्ण कर बरबादी की कगार पर लाकर छोड़ देते हैं । इनका वर्णन विस्तार से वैज्ञानिक विवेचन के साथ करते हुए पूज्यवर ने इनके खिलाफ जेहाद छेड़ने का आव्हान किया है । 

इन सबके अतिरिक्त नीरोग जीवन का एक महत्वपूर्ण सूत्र है हमारा रहन-सहन । हम क्या पहनते हैं ? कितना कसा हुआ हमारा परिधान है ? हमारी जीवनचर्या क्या है ? इन्द्रियों पर हमारा कितना नियंत्रण है ? क्या हमारी रहने की जगह में धूप व प्रचुर मात्रा में है या हम सीलन से भरी बंद जगह में रहकर स्वयं को धीरे-धीरे रोगाणुओं की निवास स्थली बना रहे हैं, यह सारा विस्तार इस वाङ्मय के उपसंहार प्रकरण में है । आभूषणों, सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग, नकली मिलावटी चीजों का शरीर पर व शरीर के अन्दर प्रयोग यह सब हमारे स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालता है यह बहुसंख्य व्यक्ति नहीं जानते । हमारी जीवन-शैली कैसे समरसता से युक्त, सुसंतुलित एवं तनावयुक्त बने, यह शिक्षण जीवन जीने की कला का सर्वांगपूर्ण शिक्षण है एवं इस विद्या में परमपूज्य गुरुदेव को विशेषज्ञ माना जा सकता है । 

हरीतिमा संवर्धन नरवेल परमार्थ साधता है, स्वार्थ भी जीवन शैली आहार-विहार का क्रम बदल कर हर व्यक्ति नीरोग जीवन जी सकता है, यह इस वाङ्मय की धुरी है । निश्चित ही पाठकगण इसके स्वाध्याय से लाभान्वित हो समर्थ स्वस्थ नागरिक राष्ट्र् को दे सकेंगे॥

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