कम्बोज के सम्राट् तिंग भिंग की राजसभा में एक दिन एक बौद्ध भिक्षुक आया और कहने लगा, ''महाराज! मैं त्रिपिटिकाचार्य हूं। पन्द्रह वर्षों तक सारे बौद्ध जगत् का तीर्थाटन करके मैंने सद्धर्म के गूढ़ तत्वों का रहस्योद्घटन किया है। मैं आपके राज्य का पट्टपुरोहित बनने की कामना से आया हँ। मेरी इच्छा है कि कम्बोज का शासन भगवन के आदेशानुसार संचालित हो।''
यह सुनकर सम्राट् मुस्कराये और बोले, ''आपकी सदिच्छा मंगलमयी है, किन्तु आपसे एक प्रार्थाना है कि आप धर्मग्रंथों की एक और आवृति कर डालें।''
भिक्षुक को क्रोध आया, किन्तु साक्षात् सम्राट जानकर वह अपने क्रोध को व्यक्त न कर सका। उसने सोचा, ''क्यों न एक आवृति और कर लूँ। सम्राट् को रूष्ट कर राजपुरोहित के प्रतिष्ठित पद को क्यों हाथ से जाने दूँ।''
दूसरे वर्ष वह सम्राट् के सम्मुख उपस्थित हुआ तो सम्राट् ने फिर कहा ''भगवन्, एकान्त सेवन के साथ एक बार और धर्मग्रन्थों का परायण करें, तो श्रेयस्कर होगा।''
भिक्षुक के क्रोध की सीमा न रही, किन्तु सामने सम्राट् होने के कारण कुछ न कर सकता था। अपमान के दंश से पीड़ित एकान्तवास के लिए वह नदीतट पर गया। कोलाहल से दूर नदीतट पर प्रार्थना करने में उसे बड़ा ही आनंद प्राप्त हुआ। अब तो उसने अपना आसन वहीं जमाया और एकाग्रचित से भगवान् की प्रार्थना में लीन रहने लगा।
साल भर बाद सम्राट् तिंग भिंग अपनी समस्त प्रजा के साथ नदीतट पर उपस्थित हुए। उन्होंने भिक्षुक को तन-मन की सुध भूले आनंदातिरेक में भगवान् की प्रार्थना में लीन पाया। उन्होंने प्रार्थना की, ''भगवन, चलिये, धर्माचार्य के आसन को सुशोभित कीजिये।''
भिक्षुक की धर्माचार्य बनने की महत्वाकांक्षा भस्मसात् हो चुकी थी। पांडित्य के अहंकार का स्थान आत्मज्ञान के आनंद ने ले लिया था। उसके अधरों पर मंद मुस्कान बिखर गयी। वह बोला, ''राजन् ! सद्धर्म उपदेश की नहीं आचरण की वस्तु है। उपदेश में अहंकार है और आचरण में आनंद। मैंने यहाँ आकर आचरण में ही आनंद पाया।
भगवान् के आदेश बड़े स्पष्ट हैं। वहाँ आचार्य की जरूरत नहीं। भगवान् ने एक ही वाक्य में सब कह दिया है-
'अप्पदीपो भव' अर्थात् 'अपने स्वयं के दीपक बनो।' मुझे राजपुरोहित का पद नहीं चाहिए।''
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