स्वामी विवेकानंद ने एक बार हिमालय के दुर्गम स्थानों की यात्रा की। उसके बाद उन्हें लगने लगा कि ऐसे दिव्य स्थलों में ही मन-मस्तिष्क एकाग्र पर सफल साधना की जा सकती है। वहां दुबारा जाने की इच्छा उनके अन्दर प्रबल हो उठी।
एक दिन वह अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे। उन्होंने हाथ जोड़कर विनम्रता के उनसे कहा," गुरुदेव , मैं तपस्या व साधना के लिए हिमालय जाना चाहता हूँ। वहां एकांत में रहकर मैं आत्मिक शांति व शक्ति प्राप्त कर सकूँगा। कृपया आप मुझे वहां जाने की स्वीकृत व आशीर्वाद प्रदान करें।"
स्वामी जी ने कहा," पुत्र इन दिनों बंगाल के कुछ भागों में भूखमरी फैली हुई है। चारों ओर लोग भूख से तड़प रहें हैं। यहाँ लोग मरते रहें, तड़पते रहें, और तुम हिमालय बैठे शान्ति पाओ, क्या यह उचित होगा? मेरे ख्याल से तुम्हारी आत्मा यह कदापि स्वीकार नहीं करेगी।"
परमहंस जी के शब्दों ने विवेकानंद को उद्वेलित कर डाला। उन्होंने हिमालय जाना स्थगित कर दिया तथा भूख से पीड़ित लोगों के बीच पहुँच कर उनकी सेवा में जुट गये। उन्होंने अपने गुरु भाइयों से कहा,"वास्तव में गरीबों व पीड़ितों की सेवा-सहायता ही सच्ची पूजा साधना है। गुरुदेव ने हमें सही रास्ता दिखाया है। हमे उसी पर चलना चाहिए।"
1 टिप्पणी:
बिल्कुल सच्ची बात कही ……………जब घर मे आग लगी हो तो हाथ नही सेंके जाते………………बहुत सुन्दर संदेश दिया।
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