दिल्ली का बादशाह गयासुद्दीन तीरंदाजी का अभ्यास कर रहा था। अचानक गयासुद्दीन का तीर चला, जो एक बालक को लगा। तत्क्षण उसकी मृत्यु हो गई। बालक के माता-पिता बेहद दुखी हुए। थोड़े दिनों बाद उस बालक की दुखी मां न्याय मांगने काजी सिराजुद्दीन के पास पहुंची। उसने काजी से कहा कि अपराधी भले ही सम्राट क्यों न हो, दंड अवश्य मिलना चाहिए। काजी ने उसे न्याय दिलाने के प्रति आश्वस्त किया। अगले दिन काजी ने बादशाह को अदालत में तलब किया।
नियत समय पर बादशाह अपना राजसी वस्त्र त्यागकर साधारण वस्त्रों में अदालत में हाजिर हुआ। वहां उपस्थित सभी लोगों ने नियमानुसार उसे बादशाह के रूप में सम्मान नहीं दिया क्योंकि उस वक्त वह दोषी के रूप में आया था। मुकदमा चला, बादशाह ने अपना अपराध स्वीकार किया और भारी जुर्माना भरना कबूल किया। अदालत की कार्रवाई समाप्त होने के बाद काजी उठा और उसने बादशाह को सलाम किया। बादशाह ने अपने कपड़ों में छिपी तलवार दिखाते हुए कहा- अगर आप मेरे डर से विचलित होकर सही न्याय नहीं करते तो मैं आपकी गर्दन इस तलवार से उड़ा देता।
काजी ने भी न्यायासन के पास रखी छड़ी की ओर संकेत कर कहा- जहांपनाह! अच्छा हुआ आपने अदालत का सम्मान किया, वरना मैं इस छड़ी से आपकी चमड़ी उधेड़ देता। तब बादशाह खुश होकर बोले- मुझे आप पर गर्व है। वही सच्चा न्यायाधीश है जिसकी नजर में राजा व प्रजा बराबर हैं। कथा का संदेश यह है कि न्याय की तुला पक्षपातरहित होनी चाहिए। जब न्याय निष्पक्ष होता है तभी दोषी सजा पाता है।
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