मृत्यु के बाद एक साधु और एक डाकू साथ-साथ यमराज के दरबार में पहुंचे। यमराज ने अपने बहीखातों में देखा और दोनों से कहा-यदि तुम दोनों अपने बारे में कुछ कहना चाहते हो तो कह सकते हो। डाकू अत्यंत विनम्र शब्दों में बोला- महाराज! मैंने जीवनभर पाप कर्म किए हैं। मैं बहुत बड़ा अपराधी हूं। अत: आप जो दंड मेरे लिए तय करेंगे, मुझे स्वीकार होगा।
डाकू के चुप होते ही साधु बोला- महाराज! मैंने आजीवन तपस्या और भक्ति की है। मैं कभी असत्य के मार्ग पर नहीं चला। मैंने सदैव सत्कर्म ही किए हैं इसलिए आप कृपा कर मेरे लिए स्वर्ग के सुख-साधनों का प्रबंध करें।
यमराज ने दोनों की इच्छा सुनी और डाकू से कहा- तुम्हें दंड दिया जाता है कि तुम आज से इस साधु की सेवा करो। डाकू ने सिर झुकाकर आज्ञा स्वीकार कर ली। यमराज की यह आज्ञा सुनकर साधु ने आपत्ति करते हुए कहा- महाराज! इस पापी के स्पर्श से मैं अपवित्र हो जाऊंगा। मेरी तपस्या तथा भक्ति का पुण्य निर्थक हो जाएगा।
यह सुनकर यमराज क्रोधित होते हुए बोले- निरपराध और भोले व्यक्तियों को लूटने और हत्या करने वाला तो इतना विनम्र हो गया कि तुम्हारी सेवा करने को तैयार है और एक तुम हो कि वर्षो की तपस्या के बाद भी अहंकारग्रस्त ही रहे और यह न जान सके कि सबमें एक ही आत्मतत्व समाया हुआ है। तुम्हारी तपस्या अधूरी है। अत: आज से तुम इस डाकू की सेवा करो।
कथा का संदेश यह है कि वही तपस्या प्रतिफलित होती है, जो निरहंकार होकर की जाए। वस्तुत: अहंकार का त्याग ही तपस्या का मूलमंत्र है और यही भविष्य में ईश उपलब्धि का आधार बनता है।
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