बुधवार, 16 नवंबर 2011

अहम्

शिष्य ने गुरू के पास अध्ययन किया। अध्ययन समाप्ति के पश्चात् जब घर जाने लगा तब निवेदन किया, ‘गुरूदेव ! मैं ये स्वर्ण मुद्राएँ आपको दक्षिणा में दे रहा हूं।’ गुरू ने कहा, ‘मैं स्वर्ण मुद्राओ का क्या करूँगा यदि तुम देना चाहते हो तो ऐसी चीज दो, जो तुम्हारे काम की नहीं हैं। शिष्य मिट्टी ले आया। कहा,‘ गुरूदेव! मैं यह दक्षिणा देना चाहता हूं इसका कोई उपयोग नहीं हैं।’ तभी मिट्टी बोल पड़ी, ‘तुमने मुझे व्यर्थ समझा है। अगर मैं न होऊ तो सारे भूखे मर जाएंगे। अनाज कहां पैदा होगा ?’ गुरू, ‘यह व्यर्थ नहीं हैं।’ शिष्य पत्थर के टुकड़े को ले आया। बीच में ही पत्थर बोल पड़ा, ‘बड़े बेवकूफ आदमी हो। अगर मैं न होऊं तो कोई मकान नही बनेगा। मुझे व्यर्थ मान रहे हो ?’शिष्य गंदगी ले आया। गुरू के समीप आया और निवेदन किया, ‘गुरूदेव! गंदगी की दक्षिणा लीजिए।’ इतने में गंदगी बोल उठी, ‘अगर मैं न होऊं तो खाद नहीं होगी। तुम्हारी फसल भी अच्छी नहीं बनेगी।’ गुरू ने कहा, ‘यह भी व्यर्थ नहीं हैं।’ अकस्मात् अंतश्चेतना जागी। मेरे भीतर एक अहं छिपा हुआ हैं। उस अहं के कारण ही मैं सब चीजों को व्यर्थ मान रहा हूं। वही सबसे ज्यादा व्यर्थ होता हैं। जो दूसरे को व्यर्थ मानता हैं, निकम्मा मानता हैं। वह गुरू के पास गया और बोला, ‘गुरूदेव, यह अहं ही हैं, जो दूसरो को व्यर्थ मान रहा है। मैं आपको यही दक्षिणा में देता हूं।’ गुरू ने प्रसन्नता से सिर पर हाथ रखा, आशीर्वाद दिया, ‘वत्स! तुमने आज मुझे वैसी दक्षिणा दी हैं, जैसी किसी ने नहीं दी।’ अहं विलय होने पर सिद्धि स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। उसके लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं होती।

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