शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

मेरी कमियाँ

मेरा यह मानना हैं कि ईश्वर तथा प्रकृति ने मानव समाज को भरपूर दिया है।, किन्तु यह मेरी स्वयं की कमियाँ हैं जो मुझे इनका पूर्ण लाभ लेने से वन्चित रखती हैं। 
मैं अपने में निम्नांकित कमियाँ पाता हूँ।




1. मैं सिर्फ अपने सुखों/चाहतों के बारे में ही सोचता हूँ।
2. मैं अपना सुधार करने के बजाय दूसरों के सुधार में लगा रहता हूँ।
3. मैं जिन बातों को अच्छा मानता हूँ, उन पर भी अमल नहीं करता हूँ। 
4. यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि मैं समाज के बिना नहीं रह सकता हूँ, मैं हर वो काम करता हूँ। जिससे मुझे व्यक्तिगत लाभ किन्तु समाज को हानि होती हैं।
5. मेरा अहम् एवम् स्वार्थ मेरे आगे-आगे चलता हैं। 
6. मैं हर व्यक्ति में अविश्वास रखता हूँ तथा उसके गुणों में भी दोष देखता हूँ। 
7. मैं शिक्षित होने के बावजूद नम्रता एवं नैतिकता के गुणों से दूर हूँ। 
8. मैं प्रकृति के अनमोल किन्तु निःशुल्क वरदान-भूमि, जल, वायु, आकाश, सूर्य, वन पर आश्रित होने के बाद भी उनको समाप्त कर रहा हूँ। ये मेरे स्वयं के समाप्त होने की पूर्व सूचना हैं। 

मुझे विश्वास हैं कि मेरे प्रयत्न तथा ईश्वर की कृपा ही मेरी इन कमियों को दूर कर सकती हैं।

-अंतरभावना सहित-

जनहित में गोयल चेरिटीज एसोसिएशन, इन्दौर द्वारा प्रचारित पेम्पलेट की अनुकृति

‘समाज संगठन’ श्री माहेश्वरी समाज इन्दोर के मुख पत्र से साभार।

पहचान

‘‘मैं अपना काम ठीक-ठाक करूंगा और उसका पूरा-पूरा फल पाऊँगा।‘‘ यह एक ने कहा।

‘‘मैं अपना काम ठीक-ठीक करूंगा और निश्चय ही भगवान उसका पूरा फल मुझे देंगे।’’ यह दूसरे ने कहा। 

‘‘मैं अपना काम ठीक करूंगा। फल के बारे में सोचना मेरा काम नहीं।’’ यह तीसरे ने कहा।

‘‘मैं काम-काज और फल, दोनों के झमेले में नहीं पड़ता, जो होता हैं सब ठीक है, जो होगा सब ठीक हैं।’’ यह चैथे ने कहा।

आकाश सब की सुन रहा था। 
उसने कहा-‘‘पहला गृहस्थ हैं, 
दूसरा भक्त हैं, 
तीसरा ज्ञानी हैं, 
पर चैथा परमहंस हैं या अकर्मण्य, 
यह में नहीं कह सकता।’’

‘समाज संगठन’ श्री माहेश्वरी समाज इन्दोर के मुख पत्र से साभार।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

शिखा - सूत्र और गायत्री मंत्र सभी के लिए

शिखा और सूत्र हिंदूधर्म के प्रतीकचिहृ् हैं- ईसाइयों के क्रूस और मुसलमानों के चाँद-तारे की तरह । सृष्टि के आरंभ में ॐकार, ॐकार से तीन व्याहृतियों के रूप में तीन तत्त्व या तीन गुण, तीन प्राण । इसके बाद अनेकानेक तत्त्वदर्शन और साधना-विज्ञान के पक्षों का विस्तरण । सृष्टि के साथ जुड़े हुए अनेक भौतिक रहस्य भी उसी क्रम-उपक्रम के साथ जुड़े समझे जा सकते हैं । अंत में भी जो एक शेष रह जाएगा, वह गायत्री का बीजमंत्र ॐकार ही है ।
 
समझदारी का उदय होते ही हर हिंदू बालक को द्विजत्व की दीक्षा दी जाती है । उसके सिर पर गायत्री का ध्वाजारोहण शिखा के रूप में किया जाता है । सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत । उसका धारण नर-पशु से नर-देव के जीवन में प्रवेश करना है । द्विजत्व अर्थात् जीवनचर्या को आदर्शों के अनुशासन में बाँधना । यह स्मरण प्रतीक-रूप में हृदय, कंधे, पीठ आदि शरीर के प्रमुख अंगों पर हर घड़ी सवार रहे, इसलिए नौ महान सद्गुणों -पाँच क्रियापरक और चार भावनापरक, (1-श्रमशीलता 2- शिष्टता 3- मितव्ययिता 4- सुव्यस्था 5- उदार सहकारिता 6- समझदारी 7- ईमानदारी 8- जिम्मेदारी 9- बहादुरी)  का प्रतीक -उपनयन हर वयस्क को पहनाया जाता है । 
मध्यकाल के सांमतवादी अंधकार-युग में विकृतियाँ हर क्षेत्र में घुस पड़ी । उनने संस्कृतिपरक भाव-संवेदनाओं और प्रतीकों को भी अछूता नहीं छोड़ा । कहा जाने लगा-गायत्री मात्र ब्राह्राण-वंश के लिए है, अन्य जातियाँ उसे धारण न करे, स्त्रियाँ भी गायत्री से संबंध न रखें, उसे सामूहिक रूप से इस प्रकार न दिया जाए कि दूसरे लोग उसे सुन या सीख सकें । ऐसे मनगढ़ंत प्रतिबंध क्यों लगाए गए होंगे, इसका कारण खोजने पर एक ही बात समझ में आती है कि मध्यकाल में अनेकानेक मत-संप्रदाय जब बरसाती मेंढकों की तरह उबल पड़े तो उनने अपनी-अपनी अलग-अलग विधि-व्यवस्था, प्रथा-परंपरा, भक्ति-साधना आदि के अपने-अपने ढ़ग के प्रसंग गढ़े होंगे । उनके मार्ग में अनादि मान्यता गायत्री से बाधा पड़ती होगी, दाल न गलती होगी, ऐसी दशा में उन सबने सोचा होगा कि अनादि मान्यता के प्रति अनेक संदेह पैदा किए जाएँ, जिसके चलते लोगों का ध्यान शाश्वत प्रतिष्ठापना की ओर से विरत किया जा सके ।
 
कलियुग में गायत्री फलित नहीं होती, यह कथन भी ऐसे ही लोगों का है । इन लोगों को बताया जा सकता है कि युग निर्माण योजना ने किस प्रकार गायत्री महामंत्र के माध्यम से समस्त संसार के नर-नारियों का इस दिशाधारा के साथ जोड़ा है और उनमें उसे उन सभी को उल्लास भरे प्रतिफल किस प्रकार मिले हैं । यदि उन लोगों के प्रतिपादन सही होते तो गायत्री की अनुपयोगिता के पक्ष में लोकमत हो गया होता, जबकि विवेचना से प्रतीत होता है कि इन्हीं दिनों उसका विश्वव्यापी विस्तार हुआ है और अनुभव के आधार पर सभी ने यह पाया है कि 'सद्बुद्धि' की उपासना ही समय की पुकार और श्रेष्ठत्तम उपासना है । 
इस सन्दर्भ में नर और नारी का भी अंतर नहीं स्वीकारा जा सकता है । गायत्री स्वयं मातृरूपा है । माता की गोद में उनकी पुत्रियों को न बैठने दिया जाए, कहाँ का न्याय है! भगवान के साथ रिश्ते जोड़ते हुए उसे 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' जैसे श्लोकों में परमात्मा को सर्वप्रथम माता बाद में पिता, मित्र, सखा, गुरु आदि के रूप में बताया गया है । गायत्री को नारी-रूप में मान्यता देने के पीछे एक प्रयोजन यह भी है कि मातृशक्ति के प्रति इन दिनों जो अवहेलना व अवज्ञा का भाव अपनाया जा रहा है, उसे निरस्त किया जा सके । अगली शताब्दी नारी-शताब्दी है । अब तक हर प्रयोजन के लिए नर को प्रमुख और नारी को गौण ही नहीं, हेय-वंचित रखे जाने योग्य माना जाता रहा है । अगले दिनों यह मान्यता सर्वथा उलट दी जाने वाली है । नारी-वर्चस्व का प्राथमिकता मिलने जा रही है । ऐसी दशा में यदि भगवान को नारी-रूप में प्रमुखतापूर्वक मान्यता मिल तो उसमें न तो कुछ नया है और न अमान्य ठहराने योग्य । यह तो शाश्वत परंपरा का पुनजीर्वन मात्र है । स्रष्टा ने सर्वप्रथम प्रकृति को नारी के रूप में ही सृजा है । उसी की उदरदरी से प्राणिमात्र का उद्भव-उत्पादन पड़ा है । फिर नारी को गायत्री-साधना से, उपनयन-धारण से वंचित रखा जाए, यह किस प्रकार बुद्धिसंगत हो सकता है । शांतिकुंज के गायत्री-आंदोलन ने रूढ़िवादी प्रतिबंधों को इस संदर्भ में कितनी तत्परता और सफतापूर्वक निरस्त करके रख दिया है, इसे कोई भी, कहीं भी देख सकता है । गायत्री-उपासना और यज्ञापवीत-धारण को बिना किसी भेदभाव के सर्वधारण के लिए अपनी योग्य स्थिति में ला दिया गया है । उसके सत्परिणाम भी प्रत्यक्ष मिलते देखे जा रहे हैं । अगले दिनों समस्त संसार एक केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा है । ऐसी दशा में गायत्री को सर्वभौम मान्यता मिले और उसे सार्वजनिक ठहराया जाए तो इसमें आश्चर्य ही क्या है! 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

चौबीस अक्षरों का शक्तिपुंज

गायत्री के नौ शब्द महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें आश्विन की नवदुर्गाओं में विभिन्न उपचारों के साथ पूजा जाता है । देवी भागवत में गायत्री को तीन शक्तियों-ब्राह्मणी, वैष्णवी, शांभवी के रूप में निरूपित किया गया है और नारी-वर्ग की महाशक्तियों को चौबीस की संख्या में निरूपित करते हुए उनमें से प्रत्येक के सुविस्तृत महात्म्यों का वर्णन किया है ।
 
गायत्री के चौबीस अक्षरों का अलंकारिक रूप से अन्य प्रसंगों में भी निरूपण किया गया है । भगवान् के दस ही नहीं, चौबीस अवतारों का भी पुराणों में वर्णन है । ऋषियों में सप्त ऋषियों की तरह उनमें से चौबीस को प्रमुख माना गया है-ये गायत्री के अक्षर ही हैं । देवताओं में से त्रिदेवों की ही प्रमुखता, है पर विस्तार में जाने पर पता चलता है कि वे इतने ही नहीं वरन् चौबीस की संख्या में भी मूर्द्घन्य प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहे हैं । महर्षि दत्तात्रेय ने ब्रह्माजी के परामर्श से चौबीस गुरूओं से अपनी ज्ञान-पिसासा को पूर्ण किया था । ये चौबीस गुरू प्रकारांतर से गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं । 

सौरमंडल के नौ ग्रह हैं । सूक्ष्म-शरीर के छह चक्र और तीन ग्रंथि-समुच्चय विख्यात हैं, इस प्रकार उनकी संख्या नौ हो जाती है । इन सबकी अलग-अलग अभ्यर्थनाओं की रूपरेखा साधना-शास्त्रों में वर्णित हैं । गायत्री को नौ शब्दों की व्याख्या में निरूपित किया गया है, इनमें किस पक्ष की, किस प्रकार साधना की जाए तो उसके फलस्वरूप किस प्रकार उनमें सन्निहित दिव्यशक्तियों की उपलब्धि होती रहे । अष्टसिद्घियों और नौ निधियों को इसी परिकर के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिक्रिया समझा जा सकता है । 

अतींद्रिय क्षमताओं के रूप में परामनोविज्ञानी मानवीय सत्ता में सन्निहित जिन विभूतियों का वर्णन-निरूपण करते हैं, उन सबकी संगति गायत्री मंत्र के खंड-उपखंडों के साथ पूरी तरह बैठ जाती है । देवी भागवत सुविस्तृत उपपुराण है । उसमें महाशक्ति के अनेक रूपों की विवेचना तथा श्रंखला है । उसे गायत्री की रहस्यमय शक्तियों का उद्घाटन ही समझा जा सकता है । ऋषियुग के प्रायः सभी तपस्वी गायत्री का अवलंबन लेकर ही आगे बढ़े हैं । मध्यकाल में भी ऐसे सिद्घ-पुरूषों के अनेक कथानक मिलते हैं, जिनमें यह रहस्य सन्निहित है कि उनकी सिद्घियाँ-विभूतियाँ गायत्री पर ही अवलंबित हैं । 

यदि इन्हीं दिनों इस संदर्भ में अधिक जानना हो तो अखण्ड ज्योति संस्थान, मथूरा द्वारा प्रकाशित गायत्री महाविज्ञान के तीनों खण्डो का अवगाहन किया जा सकता हैं, साथ ही यह भी खोजा जा सकता है कि ग्रंथ के प्रणेता ने सामान्य व्यक्तित्व और स्वल्प साधन होते हुए भी कितने बड़े और कितने महत्वपूर्ण कार्य कितनी बड़ी संख्या में संपन्न किए हैं । उन्हें कोई समर्थ व्यक्ति, यों पाँच जन्मों में या पाँच शरीरों की सहायता से ही किसी प्रकार संपन्न कर सकता है । 

अन्यान्य धर्मों में अपने-अपने संप्रदाय से संबंधित एक-एक ही प्रमुख मंत्र है । भारतीय धर्म का भी एक ही उद्गम-स्त्रोत है-गायत्री । उसी के विस्तार के रूप में-पेड़ के तने, टहनी, फल-फूल आदि के रूप में-वेद, शास्त्र,पुराण, उपनिषद्, स्मृति, दर्शन, सूक्त आदि का विस्तार हुआ है । एक से अनेक और अनेक से एक होने की उक्ति गायत्री के ज्ञान और विज्ञान से संबंधित-अनेकानेक दिशाधाराओं से संबंधित-साधनाओं की विवेचना करके विभिन्न पक्षों को देखते हुए विस्तार के रहस्य को भली प्रकार समझा जा सकता है । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

गायत्री का तत्त्वदर्शन और भौतिक उपलब्धियाँ

गायत्री-उपासना का सहज स्वरूप है-व्याहृतियों वाली त्रिपदा गायत्री का जप । 'ॐ र्भूभुवः स्वः' यह शीर्ष भाग है, जिसका तात्पर्य है कि आकाश, पाताल और धरातल के रूप में जाने जाने वाले तीनों लोकों में उस दिव्यसत्ता को समाविष्ट अनुभव करना । जिस प्रकार न्यायाधीश और पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में अपराध करने का कोई साहस नहीं करता, उसी प्रकार सर्वदा, सर्वव्यापी, न्यायकारी सत्ता की उपस्थिति अपनी सब ओर सदा-सर्वदा अनुभव करना और किसी भी स्तर की अनीति का आचरण न होने देना । 'ॐ' अर्थात् परमात्मा । उसे विराट् विश्व ब्रह्माण्ड के रूप में व्यापक भी समझा जा सकता है । यदि उसे आत्मासत्ता में समाविष्ट भर देखना हो तो स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर में परमात्म सत्ता की उपस्थिति अनुभव करनी पड़ती है और देखना पड़ता है कि इन तीनों ही क्षेत्रों में कहीं ऐसी मलीनता न जुटने पाए, जिसमें प्रवेश करते हुए परमात्म सत्ता को संकोच हो, साथ ही इन्हें इतना स्वस्थ, निर्मल एवं दिव्यताओं से सुसंपन्न रखा जाए कि जिस प्रकार खिले गुलाब पर भौरे अनायास ही आ जाते हैं, उसी प्रकार तीनों शरीरों में परमात्मा की उपस्थिति दीख पड़े और उनकी सहज सदाशयता की सुगंधि से समीपवर्ती समूचा वातावरण सुगंधित हो उठे । 

गायत्री मंत्र का अर्थ सहज सर्वविदित है- सवितुः-तेजस्वी । वरेण्यं-वरण करना, अपनाना । भर्गो-अनौचित्य को तेजस्विता के आधार पर दूर हटा फेंकना । देवस्य-देवत्व की पक्षधर विभूतियों को-धीमहि अर्थात् धारण करना । अंत में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि इन विशेषताओं से संपन्न परमेश्वर हम सबकी बुद्घियों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें, सद्बुद्घि का अनुदान प्रदान करे । कहना न होगा कि ऐसी सद्बुद्घि प्राप्त व्यक्ति, जिसकी सद्भावना जीवंत हो, वह अपने दृष्टिकोण में स्वर्ग जैसी भरी-पूरी मनःस्थिति एवं भरी-पूरी परिस्थितियों का रसास्वादन करता है । वह जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी विशिष्टताओं के बलबूते स्वर्गीय वातावरण बना लेता है । 

स्वर्ग-प्राप्ति के अतिरिक्त दैवी अनुकंपा का दूसरा लाभ है-मोक्ष । मोक्ष अर्थात् मुक्ति-कषाय-कल्मषों से मुक्ति, दोष-र्दुगुणों से मुक्ति, भव-बंधनों से मुक्ति । यही भव-बंधन है, जो स्वतंत्र अस्तित्व लेकर जन्मे मनुष्यों को लिप्साओं और कुत्साओं के रूप में अपने बंधनों में बाँधता है । यदि आत्मशोधनपूर्वक इन्हें हटाया जा सके तो समझना चाहिए कि जीवित रहते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो गई । इसके लिए मरणकाल आने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती । गायत्री की पूजा-उपासना और जीवन-साधना यदि सच्चे अर्थो में की गई हो तो उसकी दोनों आत्कि ऋद्घि- सिद्घियाँ स्वर्ग और मुक्ति के रूप में निरंतर अनुभव में उभरती रहती हैं और उनके रसास्वादन से हर घड़ी-कृत हो चलने का अनुभव होता है । 
गायत्री-उपासना द्वारा अनेक भौतिक सिद्घियों व उपलब्धियों के मिलने का इतिहास पुराणों में वर्णित है । वशिष्ट के आश्रम में विद्यमान नंदिनी रूपी गायत्री ने राजा विश्वामित्र की सहस्त्रों सैनिकों वाली सेना की कुछ ही पलों में भोजन-व्यवस्था बनाकर उन सबको चकित कर दिया था । गौतम मुनि को माता गायत्री ने अक्षय पात्र प्रदान किया था, जिसके माध्यम से उन दिनों की दुर्भिक्ष-पीड़ित जनता को आहार प्राप्त हुआ था । दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ संपन्न कराने वाले श्रंगी ऋषि को गायत्री का अनुग्रह ही प्राप्त था, जिसके सहारे चार देवपुत्र उन्हें प्राप्त हुए । ऐसी ही अनेक कथा-गाथाओं से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है, जिसमें गायत्री-साधना के प्रतिफलों की चमत्कार भरी झलक मिलती है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

नौ सद्गुणों की अभिवृद्घि ही गायत्री-सिद्घि

पाँच क्रियापरक और चार भावनापरक, (1-श्रमशीलता 2- शिष्टता 3- मितव्ययिता 4- सुव्यस्था 5- उदार सहकारिता 6- समझदारी 7- ईमानदारी 8- जिम्मेदारी 9- बहादुरी) इन नौ गुणों के समुच्चय को ही धर्म-धारणा कहते हैं । गायत्री-मंत्र के नौ शब्द इन्हीं नौ दिव्य-संपदाओं को धारण किए रहने की प्रेरणा देते हैं । यज्ञोपवीत के नौ धागे भी यही हैं । उन्हें गायत्री की प्रतीक प्रतिमा माना गया है और इनके निर्वाह के लिए सदैव तत्परता बरतने के लिए, उसे कंधे पर धारण कराया जाता है, अर्थात् मानवीय गरिमा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए नौ अनुशासन भरे उत्तरदायित्व कंधे पर धारण करना ही वस्तुतः यज्ञोपवीत धारण का मर्म है । इन्हीं का सच्चे अर्थों में गायत्री मंत्र की जीवनचर्या में हृदयंगम कराया जाता है । 
गायत्री मंत्र की साधना से व्यक्ति में ये नौ सद्गुण उभरते हैं । इसी बात को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि जो इन नौ गुणों का अवधारण करता है, उसी के लिए यह संभव है कि गायत्री मंत्र में सन्निहित ऋद्घि-सिद्घियों को अपने में उभरता देखे । गंदगी वाले स्थान पर बैठने के लिए कोई सुरूचि संपन्न भला आदमी तैयार नहीं होता, फिर यह आशा कैसे की जाए कि निकृष्ट स्तर का चिंतन, चरित्र और व्यवहार अपनाए रहने वालों पर किसी प्रकार का दैवी अनुग्रह बरसेगा और उन्हें यह गौरव मिलेगा, जो देवत्व के साथ जुड़ने वालों को मिला करता है । 

ज्ञान और कर्म का युग्म है । दोनों की सार्थकता इसी में है कि वे दोनों साथ-साथ रहें, एक-दूसरे को प्रभावित करें और देखने वालों को पता चले कि जो सीखा, समझा, जाना और माना गया है, वह मात्र काल्पनिक न होकर इतना सशक्त भी है कि क्रिया को, विधि-व्यवस्था को अपने स्तर के अनुरूप बना सके । 

जीवन-साधना से जुड़ने वाले गायत्री महामंत्र के नौ अनुशासनों का ऊपर उल्लेख हो चुका है । इन्हें अपने जीवनक्रम के हर पक्ष में समन्वित किया जाना चाहिए अथवा यह आशा रखें कि यदि श्रद्घा-विश्वासपूर्वक सच्चे मन से उपासना की गई हो तो उसका सर्वप्रथम परिचय इन सद्गुणों की अभिवृद्घि के रूप में परिलक्षित होगा । इसके बाद वह पक्ष आरंभ होगा, जिससे अलौकिक, आध्यात्मिक, अतींद्रिय अथवा समृद्घियों, विभूतियों के रूप में प्रमाण-परिचय देने की आशा रखी जाती है । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री की अवधारणा

मंत्रदीक्षा के रूप में गायत्री की अवधारणा करते समय उपनयन-संस्कार कराने की भी आवश्यकता पड़ती है । इसी प्रक्रिया को द्विजत्व की मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन को परिष्कृत करने की अवधारणा भी कहते हैं । जनेऊ पहनना, उसे कंधे पर धारण करने का तात्पर्य जीवनचर्या को-कायकलेवर को देव मंदिर-गायत्री देवालय बना लेना माना जाता है । यज्ञोपवीत में नौ धागे होते हैं । इन्हें नौ मानवीय विशिष्टता को उभारने वाले सद्गुण भी कहा जा सकता है । एक गुण को स्मरण रखे रहने के लिए एक धागे का प्रावधान इसीलिए है कि इस अवधारणा के साथ-साथ उन नौ सद्गुणों को समुन्नत बनाने के लिए आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना में निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाए, जो अनेक विभूतियों और विशेषताओं से मनुष्य को सुसंपन्न बनाती हैं । 

सौरमंडल में नौ सदस्य ग्रह हैं । रत्नों की संख्या भी नौ मानी जाती है । अंकों की श्रंखला भी नौ पर समाप्त हो जाती है । शरीर में नौ द्वार हैं । इसी प्रकार अनेकानेक सद्गुणों की, धर्म-लक्षणों की गणना में नौ को प्रमुखता दी गई है । वे पास में हों तो समझना चाहिए कि पुरातनकाल में नौ लखा हार की जो प्रतिष्ठा थी, वह अपने को भी करतलगत हो गई । ये नौ गुण इस प्रकार है - 
(१) श्रमशीलता- समय, श्रम और मनोयोग को किसी उपयुक्त प्रयोजन में निरंतर लगाए रहना । आलस्य-प्रमाद को पास न फटकने देना । समय का एक क्षण भी बरबाद न होने देना । निरंतर कार्य में संलग्न रहना । 

(२) शिष्टता- शालीनता, सज्ज्नता, भलमनसाहत का हर समय परिचय देना । अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा का परिचय देना । दूसरों के साथ वही व्यवहार करना, जो औरों से अपने लिए चाहा जाता है । सभ्यता, सुसंस्कारिता और अनुशासन का निरंतर ध्यान रखना । मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं से बचाव का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखना । 

(३) मितव्ययिता- 'सादा जीवन उच्च विचार' की अवधारणा। उद्घत-श्रंगारिक शेखीखोरी, अमीरी का अहंकारी प्रदर्शन तथा अन्य रूढ़ियों-कुरीतियों से जुड़े हुए अपव्यय से बचना सादगी है, जिसमें चित्र-विचित्र फैशन बनाने और कीमती जेवर धारण करने की कोई गुन्जाइश नहीं है । अधिक खरचीले व्यक्ति प्रायः बेईमानी पर उतारू तथा ऋणी देखे जाते हैं । उनमें ओछापन, बचकानापन और अप्रामाणिकता-अदूरदर्शिता का भी आभास मिलता है । 

(४) सुव्यस्था- हर वस्तु को सुव्यवस्थित, सुसज्जित स्थिति में रखना । फुहड़पन और अस्त-व्यस्तता, अव्यवस्था का दुर्गुण किसी भी प्रयोजन मे झलकने न देना । समय का निर्धारण करते हुए कसी हुई दिनचर्या बनाना और उसका अनुशासनपूर्वक परिपालन करना । चुस्त- दुरूस्त रहने के ये कुछ आवश्यक उपक्रम हैं । वस्तुएँ यथास्थान न रखने पर वे कूड़ा-कचरा हो जाती हैं । इसी प्रकार अव्यवस्थित व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत माने जाते हैं । 

(५) उदार सहकारिता- मिल-जुलकर काम में रस लेना। पारस्परिक आदान-प्रदान का स्वभाव बनाना । मिल-बाँटकर खाने और हँसते-हँसाते समय गुजारने की आदत डालना । इसे सामाजिकता एवं सहकारिता भी कहा जाता है । अब तक की प्रगति का यही प्रमुख आधार रहा है और भविष्य भी इसी रीति-नीति को अपनाने पर समुन्नत हो सकेगा। अकेलेपन की प्रवृत्ति तो मनुष्य को कुत्सित और कुंठाग्रस्त ही रखती है । 

उर्पयुक्त पाँच गुण पंचशील कहलाते हैं, व्यवहार में लाए जाते हैं तब स्पष्ट दीख पड़ते हैं, इसलिए इन्हें अनुशासन-वर्ग में गिना जाता है । धर्म-धारण भी इन्हीं को कहते हैं । इनके अतिरिक्त भाव-श्रद्घा से संबंधित उत्कृष्टता के पक्षधर स्वभाव भी हैं, जिन्हें श्रद्घा-विश्वास स्तर पर अंतःकरण की गहराई में सुस्थिर रखा जाता है । इन्हें आध्यात्मिक देव-संपदा भी कह सकते हैं । आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का विविध परिचय इन्हीं चार मान्यताओं के आधार पर मिलता है । चार वेदों का सार-निष्कर्ष यही है । चार दिशा-धाराएँ तथा वर्णाश्रम धर्म के पीछे काम करने वाली मूल मान्यताएँ भी यही हैं । 

(६) समझदारी- दूरदर्शी विवेकशीलता । नीर-क्षीर विवेक और औचित्य का ही चयन । परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए कुछ करने का प्रयास । जीवन की बहुमूल्य संपदा के एक-एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग । दुष्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई दुर्घटनाओं के संबंध में समुचित सतर्कता का अवगाहन । 

(७) ईमानदारी- आर्थिक और व्यावहारिक क्षेत्र में इस प्रकार का बरताव जिसे देखने वाला सहज सज्जनता का अनुमान लगा सके, विश्वस्त समझ सके और व्यवहार करने में किसी आशंका की गुन्जाइश न रहे । भीतर और बाहर को एक समझे । छल, प्रवंचना, अनैतिक आचरण से दृढ़तापूर्वक बचना । 

(८) जिम्मेदारी- मनुष्य यों तो स्वतंत्र समझा जाता है, पर वह जिम्मेदारियों के इतने बंधनों से बँधा हुआ है कि अपने-परायों में से किसी के भी साथ अनाचरण की गुंजाइश नहीं रह जाती । ईश्वर प्रदत्त शरीर, मानस एवं विशेषताओं में से किसी का भी दुरूपयोग न होने पाए । परिवार के सदस्यों से लेकर देश, धर्म, समाज व संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्वों का तत्परतापूर्वक निर्वाह । इसमें से किसी में भी अनाचार का प्रवेश न होने देना । 

(९) बहादुरी- साहसिकता, शौर्य और पराक्रम की अवधारणा । अनीति के सामने सिर न झुकाना । अनाचार के साथ कोई समझौता न करना । संकट देखकर घबराहट उत्पन्न न होने देना । अपने गुण-कर्म-स्वभाव में प्रवेश करती जाने वाली अवांछनीयता से निरंतर जूझना और उसे निरस्त करना । लोभ, मोह, अहंकार, कुसंग, दुर्व्यसन आदि सभी अनौचित्यों को निरस्त कर सकने योग्य संघर्षशीलता के लिए कटिबद्घ रहना । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

शरीर की विभिन्न देव-शक्तियों का जागरण

विराट ब्रह्म की कल्पना में-विश्वपुरुष के शरीर में जहाँ-तहाँ विभिन्न देवताओं की उपस्थिति बताई गई है । गौ माता के शरीर में विभिन्न देवताओं के निवास का चित्र देखने को मिलता है । मनुष्य-शरीर भी एक ऐसा आत्मसत्ता का दिव्य मंदिर है, जिसमें विभिन्न स्थानों पर विभिन्न देवताओं की स्थिति मानी गई है । धार्मिक कर्मकाण्डों में स्थापना भाव भक्ति के आधार पर की जाती है । न्यासविधान इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए है । सामान्यतः ये सभी देवता प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, अनायास ही नहीं जाग पड़ते । अनेक साधनाएँ, तपश्चर्याएं इसी जागरण के हेतू हैं, सोता सिंह या सोता सर्प निर्जीव की तरह पड़े रहते हैं, पर जब वे जाग्रत होते हैं, तो अपना पूरा पराक्रम दिखाने लगते हैं । यही प्रक्रिया मंत्र-साधना द्वारा भी पूरी की जाती है । इस तथ्य को इस रूप में समझा जा सकता है कि मंत्र-साधना, विशेषतः गायत्री-उपासना से एक प्रकार का लुज-पुंज व्यक्ति जाग्रत, सजीव एवं सशक्त हो उठता है । उसी उभरी विशेषता को मंत्र की प्रतिक्रिया या फलित हुई सिद्धि कह सकते हैं । 
गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों में सभी विभूतियों के जागरण की क्षमता है, साथ ही हर अक्षर एक ऐसे सद्गुण की ओर इंगित करता है, जो अपने आप में इतना सशक्त है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का हर पक्ष ऊँचाई की ओर उभारता है और उसकी सत्ता अपने आप ही अपना काम करने लगती है । फिर उन सफलताओं का उपलब्ध कर सकना सम्भव हो जाता है, जिनकी कि किसी देवी-देवता अथवा मंत्राराधन से आशा की जाती है । ओजस्, तेजस्, वर्चस् इन्हीं हो कहते हैं । प्रथम चरण में सूर्य जैसी तेजस्विता, ऊर्जा और गतिशीलता मनुष्य में उभरे तो समझना चाहिए कि उसने वह बलिष्ठता प्राप्त कर ली, जिसकी सहायता से ऊँची छलांग लगाना और कठिनाइयों से लड़ना सम्भव होता है । इसी प्रकार दूसरे चरण में देवत्व के वरण की बात है । मनुष्यों में ही पशु, पिशाच और देवता होते हैं। उसमें शालीनता, सज्जनता, विशिष्टता व भलमनसाहत देवत्व की विशेषताओं का ही प्रतिनिधित्व करती है । तीसरे चरण में सामुदायिक सद्बुद्घि के अभिवर्द्घन का निर्देशन है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता, इसलिए कहा जाता है कि एकाकी स्तर के चिंतन तक सीमित न रहा जाए, सामूहिकता, सामाजिकता को भी उतना ही महत्त्व दिया जाए-सद्बुद्घि से अपने समेत सबको सुसज्जित किया जाए। यह भूल न जाया जाए कि र्दुबुद्घि ही दुष्टता और भ्रष्टता की दिशा उत्तेजना देती है और यही दुर्गति का निमित्त कारण बनती है । 
दर्शन और प्रक्रिया मिलकर ही अधूरापन दूर करते हैं । गायत्री मंत्र का उपासनात्मक कर्मकांड भी फलप्रद हैं, क्योंकि शब्द-गुम्फन अंतः की सभी रहस्यमयी शक्तियों को उत्तेजित करता है, पर यह भी भूला न जाए कि स्वच्छ, शुद्घ, परिष्कृत व्यक्तित्व जब गुण-कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता से परिष्कृत-अनुप्राणित होता है, तभी वह समग्र परिस्थिति बनती है, जिसमें साधना से सिद्घि की आशा की जा सकती है । घिनौने, पिछड़े, अनगढ़ और कुकर्मी व्यक्ति यदि पूजा-पाठ करते भी रहें तो उसका कोई उपयुक्त प्रतिफल नहीं देखा जाता । ऐसे ही एकांगी प्रयोग जब निष्फल रहते हैं तो लोग समूची उपासना तथा आध्यात्मिकता को व्यर्थ बताते हुए देखे जाते हैं । बिजली के दोनों तार मिलने पर ही करेंट चालू होता है अन्यथा वे सभी उपकरण बेकार हो जाते हैं, जो विभिन्न प्रयोजनों से लाभान्वित करने के लिए बनाए गए हैं । 

इसीलिए उपासना के साथ जीवनसाधना और लोकमंगल की आराधना को भी संयुक्त रखने का र्निदेश है । पूजा उन्हीं की सफल होती है, जो व्यक्तित्व और प्रतिभा को परिष्कृत करने में तत्पर रहते हैं, साथ ही सेवा-साधना एवं पुण्य परमार्थ को सींचने, खाद लगाने में भी उपेक्षा नहीं बरतते । त्रिपदा गायत्री में जहाँ शब्द-गठन की दृष्टि से तीन चरण हैं, वहीं साथ में यह भी अनुशासन है कि धर्म-धारणा और सेवा-साधना का खाद-पानी भी उस वट-वृक्ष को फलित होने की स्थिति तक पहुँचाने के लिए ठीक तरह सँजोया जाता रहे । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

शक्ति-केंन्द्र का उद्दीपन- शब्दशक्ति द्वारा

एक विलक्षणता गायत्री महामंत्र में यह है कि इसके अक्षर, शरीर एवं मनः तंत्र के मर्म केन्द्रों पर ऐसा प्रभाव छोड़ते हैं कि कठिनाइयों का निराकरण एवं समृद्घ-सुविधाओं का सहज संवर्द्घन बन पड़े । टाइपराइटर पर एक जगह कुंजी दबाई जाती है और दूसरी जगह संबद्घ अक्षर छप जाता है । बहिर्मन पर, विभिन्न स्थानों पर पड़ने वाला दबाव एवं कंठ के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न शब्दों का उच्चारण अपना प्रभाव छोड़ता है और इन स्थानों पर पड़ा दबाव सूक्ष्म-शरीर के विभिन्न शक्ति-केंन्द्रों को उद्वेलित-उत्तेजित करता है । योगशास्त्रों में षटचक्रों, पंचकोशों, चौबीस ग्रंथियों, उपत्यिकाओं और सूक्ष्म नाड़ियों का विस्तापूर्वक वर्णन है, उनके स्थान, स्वरूप के प्रतिफल आदि का भी विवेचन मिलता हैं, साथ ही यह भी बताया गया है कि इन शक्ति-केंन्द्रों को जागृत कर लेने पर साधक उन विशेषताओं-विभूतियों से संपन्न हो जाता है । इनकी अपनी-अपनी समर्थता, विशेषता एवं प्रतिक्रिया है । गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों का इनमें एक-एक से संबंध है । उच्चारण से मुख, तालु, ओष्ठ कंठ आदि पर जो दबाव पड़ता है, उसके कारण ये केंन्द्र अपने -अपने तारतम्य के अनुरूप वीणा के तारों की तरह, झंकृत हो उठते हैं- सितार के तारों की तरह, वायलिन-गिटार की तरह, बैंजो-हारमरेनियम की तरह झंकृत हो उठते और एक ऐसी स्वरलहरी निस्सृत करते हैं, जिससे प्रभावित होकर शरीर मे विद्यमान दिव्यग्रंथियाँ जाग्रत होकर अपने भीतर उपस्थित विशिष्ट शक्तियों के जाग्रत एवं फलित होने का परिचय देने लगती हैं । संपर्क साधने के मंत्र का उच्चारण टेलेक्स का काम करता है । रेडियो या दूरदर्शन -प्रसारण की तरह शक्तिधाराएं यों सब ओर निःसृत होती हैं, पर उस केन्द्र का विशेषतः स्पर्श करती हैं, जो प्रयुक्त अक्षरों के साथ शक्ति-केन्द्रों को जोड़ता है । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

त्रिपदा गायत्री- तीन धाराओं का संगम

गायत्री को त्रिपदा कहा गया है । उसके तीन चरण हैं । उद्गम एक होते हुए भी एक साथ तीन दिशाधाराएँ जुड़ती हैं । 
(१) सविता के भर्ग-तेजस् का वरण अर्थात् जीवन में ऊर्जा एवं आभा का बाहुल्य । आवंछनीयताओं से अंतःऊर्जा का टकराव । परिष्कृत प्रतिभा एवं शौर्य-साहस इसी का नाम है । गायत्री के नैष्ठिक साधक में यह प्रखर प्रतिभा इस स्तर की होनी चाहिए कि अनीति के आगे न सिर झुकाए और न झुककर कायरता के दबाव में कोई समझौता करे । 
(२) दूसरा चरण है-देवत्व का वरण अर्थात् शालीनता को अपनाते हुए उदारचेता बने रहना, लेने की अपेक्षा देने की प्रकृति का परिपोषण करना, उस स्तर के व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव-गरिमा की अंतराल में अवधारणा करना । यही है देवत्व धीमहि । 
(३) तीसरा सोपना है- 'धियो यो नः प्रचोदयात् मात्र अपनी ही नहीं, अपने समूह, समाज व संसार में सद्बुद्घि की प्रेरणा उभारना-मेधा, प्रज्ञा, दूरदर्शी विवेकशीलता, नीर-क्षीर विवेक में निरत बुद्घिमत्ता । 
यही है आध्यात्मिक त्रिवेणी-संगम, जिसमें अवगाहन करने पर मनुष्य असीम पुण्यफल का भागी बनता है । कौए से कोयल एवं बगुले से हंस बन जाने की उपमा जिस त्रिवेणी संगम के स्नान से दी जाती है, वह वस्तुतः आदर्शवादी साहसिकता, देवत्व की पक्षधर शालीनता एवं आदर्शवादिता को प्रमुखता देने वाली महाप्रज्ञा है । गायत्री का तत्वज्ञान समझने और स्वीकारने वाले में ये तीनों ही विशेषताएँ न केवल पाई जानी चाहिए वरन् उनका अनुपात निरंतर बढ़ते रहना चाहिए । इस आस्था को स्वीकारने के उपरांत संकीर्णता प कृपणता से अनुबंधित ऐसी स्वार्थपरता के लिए कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि उससे प्रभावित होकर कोई दूसरों के अधिकारों का हनन करके अपने लिए अनुचित स्तर का लाभ बटोर सके-अपराधी या आततायी कहलाने के पतन-पराभव को अपना सके । 
नैतिक, बौद्घिक, सामाजिक, भौतिक और आत्मिक, दार्शनिक एवं व्यावहारिक, संवद्घंन एवं उन्मूलनपरक-सभी विषयों पर गायत्री के चौबीस अक्षरों में विस्तृत प्रकाश डाला गया है और न सभी तथ्यों तथा रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, जिनके सहारे संकटों से उबरा और सुख-शन्ति के सरल मार्ग को उपलब्ध हुआ जा सकता है । जिन्हें इस संबंध में रूचि है, वे अक्षरों के वाक्यों के विवेचनात्मक प्रतिपादनों को ध्यानपूर्वक पढ़ लें और देखें कि इस छोटे से शब्द-समुच्चय में प्रगतिशीलता के अतिमहत्वपूर्ण तथ्यों का किस प्रकार समावेश किया गया है । इस आधार पर इसे ईश्वरीय निर्देश, शास्त्र-वचन एवं आप्तजन-कथन के रूप में अपनाया जा सकता है । गायत्री के विषय में गीता का वाक्य है- 'गायत्री 'छंदसामहम्' । भगवान् कृष्ण ने कहा है कि 'छंदों में गायत्री मैं स्वयं हूँ,' जो विद्या-विभूति के रूप में गायत्री की व्याख्या करते हुए विभूति योग में प्रकट हुई हैं । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

गायत्री और साविता का उद्भव

पौराणिक कथा-प्रसंग में चर्चा आती है कि सृष्टि के आरंभकाल में सर्वत्र मात्र जलसंपदा ही थी । उसी के मध्य में विष्णु भगवान् शयन कर रहे थे । विष्णु की नाभि में कमल उपजा । कमल पुष्प पर ब्रह्माजी अवतरित हुए । वे एकाकी थे, अतः असमंजसपूर्वक अनुरोध लगे कि मुझे क्यों उत्पन्न किया गया है ? क्या करूँ ? कुछ करने के लिए साधन कहाँ से पाऊँ ? इन जिज्ञासाओं का सामाधान आकावाणी ने किया और कहा- 'गायत्री के माध्यम से तप करें, आवश्यक मार्गदर्शन भीतर से ही उभरेगा ।' उनने वैसा ही किया और आकाशवाणी द्वारा बताए गए गायत्री मंत्र की तपपूर्वक साधना करने लगे । पूर्णता की स्थिति प्राप्त हुई । गायत्री दो खंड बनकर दर्शन देने एवं वरदान-मार्गदर्शन से निहाले करने उतरी । उन दो पक्षों में से एक को गायत्री, दूसरे को सावित्री नाम दिया गया । गायत्री अर्थात् तत्वज्ञान से संबंधित पक्ष । सावित्री अर्थात् भौतिक प्रयोजनों में उसका जो उपयोग हो सकता है, उसका प्रकटीकरण । जड़-सृष्टि-पदार्थ-संरचना सावित्री शक्ति के माध्यम से और विचारणा से संबंधित भाव-संवेदना, आस्था, आकांक्षा, क्रियाशीलता जैसी विभूतियों का उद्भव गायत्री के माध्यम से प्रकट हुआ । यह संसार जड़ और चेतना के-प्रकृति और परब्रह्म के समन्वय से ही दृष्टिगोचर एवं क्रियारत दीख पड़ता है । 
इस कथन का सारतत्व यह है कि गायत्री-दर्शन में सामूहिक सद्बुद्घि को प्रमुखता मिली है । इसी आधार को जिस-तिस प्रकार से अपनाकर मनुष्य मेधावी प्राणवान् बनता है । भौतिक पदार्थो को परिष्कृत करने एवं उनका सदुपयोग कर सकने वाला भौतिक विज्ञान सावित्री विद्या का ही एक पक्ष है । दोनों को मिला देने पर समग्र अभ्युदय बन पड़ता है । पूर्णता के लिए दो हाथ, दो पैर आवश्यक हैं । दो फेफड़े, दो गुरदे भी अभीष्ट हैं । गाड़ी दो पहियों के सहारे ही चल पाती हैं, अस्तु, यदि गायत्री महाशक्ति का समग्र लाभ हो तो उसके दोनों ही पक्षों को समझना एवं अपनाना आवश्यक है । 
तत्वज्ञान मान्यताओं एवं भावनाओं को प्रभावित करता है । इन्हीं का मोटा स्वरूप चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार है । गायत्री का तत्वज्ञान इस स्तर की उत्कृष्टता अपनाने के लिए सद्विषयक विश्वासों को अपनाने के लिए प्रेरणा देता है । उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, मर्यादा एवं र्कत्तव्यपरायणता जैसी मानवीय गरिमा को अक्षुण बनाए रहने वाली आस्थाओं को गायत्री का तत्वज्ञान कहना चाहिए । 

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना

भारतीय संस्कृति के बहूमूल्य निर्धारणों और अनुशासनों का सारतत्व खोजना हो तो उसे चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र का मंथन करके जाना जा सकता है । भारतीय संस्कृति का इतिहास खोजने से पता लग सकता है कि प्राचीनकाल में इस समुद्र मंथन से कितने बहुमूल्य रत्न निकले थे तथा भारमभूमि को 'स्वार्गादपि गरीयसी' बनाने में उस मंथन से निकले नवनीत ने कितने बड़ी भूमिका निबाही थी । मनुष्य में देवत्व का उदय कम-से कम भारतभूमि का कमलपुष्प तो कहा ही जा सकता है । जब वह फलित हुआ तो उसका अमरफल इस भारतभूमि को 'स्वार्गादपि गरीयसी' बना सकने में समर्थ हुआ । 
भारत को जगद्गुरू, चक्रवती व्यवस्थापक और दिव्यसंपदाओं का उद्गम कहा जाता है । समस्त विश्व में इसी देश के अजस्त्र अनुदान अनेक रूपों में बिखरे हैं । यह कहने में कोई अत्युक्ति प्रतीत नहीं होती कि संपदा, सभ्यता और सुसंस्कारिता की प्रगतिशीलता इसी नर्सरी में जमी और उसने विश्व को अनेकानेक विशेषताओं और विभूतियों से सुसंपन्न किया । 
भारतीय संस्कृति का तत्वदर्शन गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों की व्याख्या-विवेचना करते हुए सहज ही खोज और पाया जा सकता है । गायत्रीगीता, गायत्रीस्मृति, गायत्रीसंहिता, गायत्रीरामयण, गायत्री-लहरी आदि संरचनाओं को कुरेदने से अंगारे का वह मध्य भाग प्रकट होता है, जो मुद्दतों से राख की मोटी परत जम जाने के कारण अदृश्य- अविज्ञात स्थिति में दबा हुआ पड़ा था। 
कहना न होगा कि गरिमामय व्यक्तित्व ही इस संसार की अगणित विशेषताओं, संपदाओं एवं विभूतियों का मूलभूत कारण है । वह उभरे तो मनुष्य देवत्व का अधिष्ठाता और नर से नारायण बनने की संभावनाओं से भरा-पूरा है । गौरव-गरिमा मानवता के साथ किस प्रकार अविच्छिन्न रूप से जुड़ी इसका सारतत्व गायत्री के अक्षरों को महासमुद्र मानकर उसमें डुबकी लगाकर खोजा, देखा और पाया जा सकता है । 
मात्र अक्षर दोहरा लेने से तो स्कूली बच्चे प्रथम कक्षा में ही बने रहते हैं । उन्हें प्रशिक्षित बनने के लिए वर्णमाला, गिनती जैसे प्रथम चरणों से आगे बढ़ाना पड़ता हैं । इसी प्रकार गायत्री मंत्र के साथ जो विभूतियाँ अविच्छिन्न रूप से आबद्घ हैं, मात्र थोड़े से अक्षरों को याद कर लेने या दोहरा देने से उसमें वर्णित विशेषताओं को उपलब्ध करना नहीं माना जा सकता । उनमें सन्निहित तत्वज्ञान पर भी गहरी दृष्टि डालनी होगी । इतना ही नहीं, उसे हृदयंगम भी करना होगा और जीवनचर्या में नवनीत को इस प्रकार समाविष्ट करना होगा कि मलीनता का निराकरण तथा शालीनता का अनुभव संभव बन सके । 
संसार में अनेक धर्म-संप्रदाय हैं । उनके अपने-अपने धर्मशास्त्र हैं । उनमें मनुष्य को उत्कृष्टता का मार्ग अपनाने के लिए प्रोत्साहन दिया गया है और समय के अनुरूप अनुशासन का विधान किया गया है । भारतीय धर्म में भी वेदों की प्रमुखता है । वेद चार हैं । गायत्री मंत्र के तीन चरण और एक शीर्ष मिलने से चार विभाग ही बनते हैं । एक-एक विभाग में एक वेद का सारतत्व है । आकार और विवेचना की दृष्टि से अन्यान्य धर्मकाव्यों की तुलना में वेद ही भारी पड़ते हैं । उनका सारतत्व गायत्री के चार चरणों में है, इसलिए उसे संसार का सबसे छोटा धर्मशास्त्र भी कह सकते हैं । हाथी के पैर में अन्य सब प्राणियों के पदचिन्ह समा जाते हैं वाली उक्ति यहाँ भली प्रकार लागू होती है । 
 -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

गायत्री महामंत्र

चौबीस अक्षरों का गायत्री महामंत्र भारतीय संस्कृति के वाड्मय का नाभि कमल कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी । यह संसार का सबसे छोटा एवं एक समग्र धर्मशास्त्र है । यदि कभी भारत जगद्गुरु-चक्रवर्ती रहा है तो उसके मूल में इसी की भूमिका रही है। गायत्री मंत्र का तत्वदर्शन कुछ ऐसी उत्कृष्टता अपने अंदर समाए है कि उसे हृदयंगम कर जीवनचर्या में समाविष्ट कर लेने से जीवन परिष्कृत होता चला जाता है । वेद, जो हमारे आदिग्रंथ हैं, उनका सारतत्व गायत्री मंत्र की व्याख्या में पाया जा सकता है । 
गायत्री त्रिपदा है । उद्गम एक होते हुए भी उसके साथ तीन दिशाधाराएँ जुड़ती हैं- 
(१) सविता के भर्ग-तेजस का वरण, परिष्कृत प्रतिभा-शौर्य व साहस । 
(२) देवत्व का वरण, देव व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव-गरिमा को अंतराल में धारण करना । 
(३) मात्र अपनी ही नहीं, सारे समूह, समाज व संसार में वृद्धि की प्रेरणा उभरना । 
गायत्री की पूजा-उपासना और जीवन-साधना यदि सच्चे अर्थों में की गई हो तो उसकी ऋद्धि-सिद्धियाँ स्वर्ग और मुक्ति के रूप में निरंतर साधक के अंतराल में उभरती रहती हैं । ऐसा साधक जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी विशिष्टताओं के बलबूते स्वर्गीय वातावरण बना लेता है । जहाँ शिखा-सूत्र का गायत्री से अविच्छिन्न संबंध है, वहीं गायत्री का पूरक है- यज्ञ । दोनों ही संस्कृति के आधार स्तम्भ हैं । अपौरुषेय स्तर पर अवतरित गायत्री मंत्र नूतन सृष्टि निर्माण में सक्षम है ।
 -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

Some very Good and Very bad things ..


The most destructive habit.......Worry 

The greatest Joy.......Giving 

The greatest loss.......Loss of self-respect

The most satisfying work.......Helping others

The ugliest personality trait.......Selfishness 

The most endangered species.......Dedicated leaders 

Our greatest natural resource.......Our youth 

The greatest 'shot in the arm'.......Encouragement 

The greatest problem to overcome.......Fear 

The most effective sleeping pill.......Peace of mind 

The most crippling failure disease.......Excuses 

The most powerful force in life.......Love 

The most dangerous act.......A gossip

The world's most incredible computer.......The brain 

The worst thing to be without.......Hope 

The deadliest weapon.......The tongue 

The two most power-filled words.......'I Can' 

The greatest asset.......Faith 

The most worthless emotion.......Self- pity 

The most beautiful attire.......SMILE! 

The most prized possession.......Integrity 

The most powerful channel of communication.......Prayer 

The most contagious spirit.......Enthusiasm 

Life ends; when you stop Dreaming, 
Hope ends; when you stop Believing, 
Love ends; when you stop Caring, 
And Friendship ends; when you stop Sharing...!!! 


साभार . श्री बृजेश कुमार जी, शान्ति कुन्ज, हरिद्वार

BALANCE SHEET OF LIFE


Our Birth is our Opening Balance! 
Our Death is our Closing Balance! 
Our Prejudiced Views are our Liabilities 
Our Creative Ideas are our Assets 

Heart is our Current Asset 
Soul is our Fixed Asset 
Brain is our Fixed Deposit 
Thinking is our Current Account 

Achievements are our Capital 
Character & Morals, our Stock-in-Trade 
Friends are our General Reserves 
Values & Behaviour are our Goodwill 

Patience is our Interest Earned 
Love is our Dividend 
Children are our Bonus Issues 
Education is Brands / Patents 

Knowledge is our Investment 
Experience is our Premium Account 
The Aim is to Tally the Balance Sheet Accurately. 
The Goal is to get the Best Presented Accounts Award. 
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साभार . श्री बृजेश कुमार जी, शान्ति कुन्ज, हरिद्वार

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

बुढ़ापे को दीजिए सार्थक दिशा.....


1. बुढ़ापा जीवन का अभिशाप नहीं, अनुभवों की कुंजी हैं। इसे विषाद नहीं, प्रभु का प्रसाद बनाइए।
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2. बचपन में ज्ञानार्जन कीजिए और जवानी में धनार्जन, पर बुढ़ापे को पुण्यार्जन के लिए समर्पित कर दीजिऐ। बचपन माँ को दिया, जवानी पत्नी को दी और बुढ़ापा पोते-पोतियों को दे देंगे तो सोचिए अपनी सद्गति की व्यवस्था कब करेंगे। 
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3. आसक्ति की जड़ों को थोड़ा ढीला कीजिये। राजा दशरथ सिर के एक सफेद बाल को देखकर वैराग्य वासित हो गए और हमारे सारे बाल ही सफेद हो गए है, फिर हम इतने आसक्त क्यों बने हुए है।
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4. घर के बेटे और बहुओं को सलाह दूंगा कि अगर घर में कोई वृद्ध हैं तो उन्हें भार मानने की बजाय भाग्य मानिऐ। याद रखें, बूढ़ा पेड़ फल नहीं देता, पर छाया तो देता ही हैं। 
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5. अपने माता-पिता को भाग्य भरोसे मत छोड़िए। उनके बुढ़ापे को सुखमय बनाने की कोशिश कीजिए। जब उन्होंने हमें प्रेम से पाला तो हम उन्हें विवशता में क्यों पाल रहे हैं। उनकी दुआएँ लीजिए और आने वाली पीढ़ी को संस्कार दीजिए।
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6. अनाथालय और अस्पताल में जाकर सेवा करना सरल हैं, पर घर के बुढ़े लोंगों की सेवा करना मुश्किल हैं आप पहले अपने घर की आग बुझाइए फिर औरों के घर पर पानी छिड़किए, इसी में आपकी भलाई हैं। 
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7. बुढ़ापे को बेकार मत समझिए। इसे सार्थक दिशा दीजिए। तन में बुढ़ापा भले ही आ जाए, पर मन में इसे मत आने दीजिए। आप जब 21 के हुए थे तब आपने शादी की तैयारी की थी, अब अगर आप 51 के हो गए हैं तो शान्ति की तैयारी करना शुरू कर दीजिए। 
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8. सुखी बुढ़ापे का एक ही मन्त्र हैं - दादा बन जाओ तो दादागिरी छोड़ दो और परदादा बन जाओ तो दुनियादारी करना छोड़ दो। अगर आप जवान हैं तो गुस्से को मन्द रखो, नही तो केरियर बेकार हो जाएगा और बूढ़े हैं तो गुस्से को बंद रखो नहीं तो बुढ़ापा बिगड़ जाएगा। 
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9. बुढ़ापे को स्वस्थ, सक्रिय और सुरक्षित रखिए। स्वस्थ बुढ़ापे के लिए खानपान को सात्त्विक और संयमित कीजिए, सक्रिय बुढ़ापे के लिए घर के छोटे-मोटे काम करते रहिए और सुरक्षित बुढ़ापे के लिए सारा धन बेटों में बाँटने के बजाय एक हिस्सा खुद व खुद की पत्नी के नाम भी रखिए। 
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10. दवाओं पर ज्यादा भरोसा मत कीजिए। भोजन में हल्दी, मैथी और अजवायन का उचित मात्रा में सेवन करते रहिए, हल्के-फुल्के व्यायाम अवश्य कीजिए अथवा आधा घण्टा टहल लीजिए। घरवालों पर हम भार न लगे और शरीर भी भारी न लगे इसलिए कुछ-न-कुछ करते रहिए। 
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11. समय-समय पर स्वास्थ्य की जाँच भी करवा लीजिए ताकि कोई बड़ी बीमारी हम पर अचानक हमला न कर बैठे और पचास की उम्र में ही शेष बुढ़ापे की आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ कर लीजिए ताकि बच्चों के सामने हाथ फैलाने की नौबत न आए। 
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12. घर में ज्यादा दखलंदाजी न करे क्योंकि बार-बार की गई टोकाटोकी बेटे-बहुओं को अलग घर बसाने के लिए मजबूर कर देगी।
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13. कमल के फूल की तरह घर में रहते हुए भी अनासक्त रहिए, थोड़ा समय प्रभु भक्ति, सत्संग, स्वाध्याय और ध्यान में बिताइये। हो सके तो साल में कम से कम एक बार संबोधि सक्रिय योग शिविर में अवश्य भाग लीजिए, इससे आपको मिलेगी जीवन की नई ऊर्जा, नया विश्वास और अद्भुत आनन्द।
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संतप्रवर श्री ललितप्रभ जी

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

Simple wrds gr8 meaning

1- apne mitro ko fwd kare.
anmol vichar NISHULK prapt karne k liye-
msg write kare-
JOIN(space)MOTIVATIONS
ise 09870807070 pr bheje.
thanks 
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2- "Do not worry if others do not understand you."
"Worry only if you can't understand urself."
Live in your passion & Love your Life. 

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3- "You Will NEVER Get a SECOND Chance 2 Make a 1st Impression Remember, The 1st Impression CAN Only GIVE You
The 2nd CHANCE" 

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4- 2 rules 2 follow 4 peaceful lyf-
'Failure' should nvr go 2 HEART 'Success' should nvr go 2 HEAD. Simple wrds grt meaning. 

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5- When Iron Gets Hot U Can Mold It In Any Shape ..... Never Loose Ur Temper Or Else People 'll Mold U d Way Dey Want .. 

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6- If d whole world against u What will you do? Simple! Just turn ur direction, U'll be the Leader of the whole World. 

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7- Every problem in a life carries a gift inside it.
So whenever U loose something dont get upset bcoz somethng may wait 4 U more than U lost. 

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8- Ek or raat chali gyi zindagi se, Ek aur din aa raha h zindagi me, ye mat socho k kitne lamhe h zindagi me, ye socho k kitni zindagi h har lamhe me. 

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9- Krodh k Dwara kisi ko Jeet lena tumhari Jeet nhi Balki wo tumhaare krodh ki jeet hai. 

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10- Amzaing True-
When u Talk, u r only repeating what u already knw bt if u listen, u may hear sumting new. 

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11- Always Try to Prove that "U ARE RIGHT" But Nvr Attempt to Prove that  "OTHERS R WRONG." 
That's d ART of being positive. 

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12- Jo apni zindgi me kuch karne me Asafal rah jaate hai, Praay ve he Log zindgi me Aalochak ban jaate hai. 

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13- A very meaningful thought on humanity-
"You can hurt a heart only till it loves you,
not after it.".. 

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14- A thoughT by gandhi.. 
"waves r my inspiration , not because they rise nd fall but each time they fall They Rise Again..." 

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15- Dusro ko Itni jaldi Maaf kar diya karo Jitni jaldi aap Uparwale se apne liye Maafi ki umeed rakhte ho. 

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16- A person who walks with his legs, reaches his destination, But A person who walks with his brain, reaches his destiny. 

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17- A nice thought read it ..
"Those who are most slow in making a promise, Are the most faithful in fulfilling it". 

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18- Santosh ka matlab y nahi ki aap kuch kaam nhi kare, Balki Santosh ka matlab y he ki karm karke apko jo kuch mile aap usme khush rahe. 
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19- "Zindagi ki aadhi pareshaniya aise hi dur ho jaye, Agar hm 'Ek-dusre k' bare me bolne k bjaye 'Ek-dusre se' bolna sikh le.

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20- Nice Lines By Chetan Bhagat-
Work hard, but make time for your love, and family. Nobody remembers Power point presentations on ur dying day.... 

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21- Life is like a Vehicle That running is Slow when you Are in it. But it runs Faster when you Are chasing it.! 

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22- Luck is not in your hands, but decision is in your hands. "Your decision can make luck, but luck can't make your decision".So always trust yourself. 

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23- The greatest gift in life is 2 find sum1 who knows all ur faults, differences, mistakes n many more wrongs about u bt still sees the best ln u.. 

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24- Success Does Not Depend on making Important Decisions Quickly It Depends on Your Quick Action on Important Decisions !! 

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